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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
है । अतः सामायिक चारित्र और समत्वयोग की साधना में तादात्म्य ही परिलक्षित होता है; क्योंकि समत्वयोग की साधना के लिए भी चित्तवृत्ति का निराकुल होना आवश्यक है। जब तक चेतना में आकुलता है, तब तक समत्वयोग की साधना सम्भव नहीं है । चारित्र तभी सम्यक् बनता है, जब हमें चैतसिक समत्व की उपलब्धि हो और इस चैतसिक समत्व की उपलब्धि के लिए चित्तवृत्ति का इच्छा, आकांक्षा और राग-द्वेष से ऊपर उठना आवश्यक है। इच्छाओं, आकाँक्षाओं, राग-द्वेष तथा तद्जन्य कषायों से ऊपर उठने पर ही चारित्र सम्यक् बनता है । सम्यक्चारित्र ही सामायिक चारित्र है और यही समत्वयोग की साधना है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में जो त्रिविध साधना मार्ग प्रस्तुत किया गया है, वह समत्वयोग की साधना के लिए ही है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही समत्वयोग की साधना के ही तीन पक्ष हैं। इस प्रकार जैनदर्शन का यह त्रिविध साधना मार्ग समत्वयोग की साधना ही है। इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता ।
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सम्यक् चारित्र मोक्षमार्ग की साधना का तृतीय चरण है । इसके द्वारा साधक सर्वकर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है । सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नहीं होता और जब तक ज्ञान सम्यक् नहीं होता, तब तक चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता है इससे यह फलित होता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों सम्यक्चारित्र रूपी वृक्ष के बीज और मूल हैं । जैसे बीज और मूल के बिना कोई भी वृक्ष पनप नहीं सकता, वैसे ही सम्यग्दर्शन रूप बीज और सम्यग्ज्ञान रूप मूल के बिना सम्यक्चारित्र रूपी वृक्ष पनप नहीं सकता । उसका अस्तित्व भी इन दोनों के बिना नहीं रह सकता। दूसरी दृष्टि से देखें, तो सम्यक्चारित्र अपने साथ इन दोनों को लेकर चलता है । सर्वार्थसिद्धि में भी कहा गया है कि “ चारित्र मोक्ष का साक्षात्कार है ।" भगवती आराधना में बताया गया
२५२ 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। ३० ।। '
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- उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ ।
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