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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
(३) प्राद्वेषिकी क्रिया;
(४) पारितापनिकी क्रिया; (५) प्राणातिपातिकी क्रिया;
(६) आरम्भकी क्रिया; (७) परिग्रहकी क्रिया;
(८) मायाप्रत्ययकी क्रिया; (६) मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया; (१०) अप्रत्याख्यानिकी क्रिया; (११) दृष्टिकी क्रिया;
(१२) स्पृष्टिकी क्रिया; (१३) प्रातित्यकी क्रिया;
(१४) सामन्तोपनिपातिकी क्रिया; (१५) नैशस्त्रिकी क्रिया;
(१६) स्वाहिस्तिकी क्रिया; (१७) आज्ञापनिकी क्रिया;
(१८) वैदारणिकी क्रिया; (१६) अनाभोगिकी क्रिया;
(२०) अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया; (२१) प्रायोगिकी क्रिया;
(२२) सामुदानिकी क्रिया; (२३) प्रेमिकी क्रिया;
(२४) द्वेषिकी क्रिया और (२५) ईर्यापथिकी क्रिया आदि।२००
अष्टप्रवचनमाता : समिति गुप्ति
जैनधर्म में श्रमण जीवन के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए पांच समितियों एवं तीन गुप्तियों का विधान मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन्हें 'अष्ट प्रवचनमाता' कहा गया है। भगवतीआराधना के अनुसार समिति और गुप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वैसी ही रक्षा करती है, जैसे माता अपने पुत्र की। अतः गुप्ति और समिति को माता कहा गया है।२०२
प्राकृत में 'पवयणमायाओ' शब्द में पवयण अर्थात् प्रवचन शब्द का अर्थ है - जिनेश्वर देव प्रणीत सिद्धान्त और 'मायाओ' शब्द
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'काइय अहिगरणिया, पाउसिया पारितावणी किरिया । पाणाइवायारंभिय, परिग्गहिआ मायवत्ती अ ।। २२ ।।
- नवतत्त्व प्रकरण । मिच्छादसणवत्ती अपच्चक्खाणां य दिट्ठि पुट्टि य । पाडुच्चिय सामंतो-वणीअ नेसत्थि साहत्थी ।। २३ ॥
- वही । आणवणि विअरणिआ अणभोगा अणवकंखपच्चाइया ।। अन्ना पओग समुदा-ण पिज्ज दोसेरियावहिया ।। २४ ।।" -नवतत्त्व प्रकरण । (क) 'अट्ठ पवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य ।
पंचेव य समिईओ, तओ गुत्तीउ आहिया' ।। १।। -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २४ । (ख) मनुस्मृति २/२० । भगवतीआराधना १२० ।
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