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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
सके, तो भी खिन्न न होकर ज्ञान व ज्ञानी की भक्ति, विनय, बहुमान, सेवा आदि करके अपनी साधना में संलग्न रहे ।
२२. सम्यक्त्वपरीषह : अन्य धर्मावलम्बी साधु, सन्यासी, योगी आदि के आडम्बर देखकर साधु अपने शुद्ध धर्म से विचलित न हो। उसकी देव, गुरू, धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए ।
इन बाईस परीषहों में बीस परीषह प्रतिकूल और दो परीषह अनुकूल हैं। आचारांगनिर्युक्ति में अनुकूल परीषहों को शीत परीषह एवं प्रतिकूल परीषहों को उष्ण परीषह कहा गया है।
२३४
दशविध मुनिधर्म :
जैन आगमों में दशविध श्रमण धर्म का वर्णन विस्तार से मिलता है; जिसका पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों कर सकते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र के वें अध्ययन में आर्जव, मार्दव, क्षमा एवं मुक्ति इन चार धर्मों का ही वर्णन किया गया है । २३५ इसके इकतीसवें अध्ययन में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो दशविध मुनिधर्म का पालन सम्यक् प्रकार से करता है, वह संसार परिभ्रमणा से मुक्त हो जाता है । इस गाथा की व्याख्या में निम्न दस धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है :
२३६
(२) मार्दव;
(१) क्षमा; (५) तप;
(६) संयम;
(६) अकिंचन; और (१०) ब्रह्मचर्य।
(३) आर्जव;
(७) सत्य;
प्रकारान्तर में इन दस धर्मों का उल्लेख आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांग, मूलाचार, बारसानुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र,
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(४) मुक्ति;
(८) शौच;
२३४ आचारांगनिर्युक्ति २०२-०३ ।
२३५
उत्तराध्ययनसूत्र ६/५७ । २३६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१६ |
(ख) 'उत्तमः क्षमामार्दवआर्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्याग सत्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः || ६ || '
- तत्त्वार्थसूत्र ६ ।
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