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________________ ११८ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना सके, तो भी खिन्न न होकर ज्ञान व ज्ञानी की भक्ति, विनय, बहुमान, सेवा आदि करके अपनी साधना में संलग्न रहे । २२. सम्यक्त्वपरीषह : अन्य धर्मावलम्बी साधु, सन्यासी, योगी आदि के आडम्बर देखकर साधु अपने शुद्ध धर्म से विचलित न हो। उसकी देव, गुरू, धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए । इन बाईस परीषहों में बीस परीषह प्रतिकूल और दो परीषह अनुकूल हैं। आचारांगनिर्युक्ति में अनुकूल परीषहों को शीत परीषह एवं प्रतिकूल परीषहों को उष्ण परीषह कहा गया है। २३४ दशविध मुनिधर्म : जैन आगमों में दशविध श्रमण धर्म का वर्णन विस्तार से मिलता है; जिसका पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों कर सकते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र के वें अध्ययन में आर्जव, मार्दव, क्षमा एवं मुक्ति इन चार धर्मों का ही वर्णन किया गया है । २३५ इसके इकतीसवें अध्ययन में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो दशविध मुनिधर्म का पालन सम्यक् प्रकार से करता है, वह संसार परिभ्रमणा से मुक्त हो जाता है । इस गाथा की व्याख्या में निम्न दस धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है : २३६ (२) मार्दव; (१) क्षमा; (५) तप; (६) संयम; (६) अकिंचन; और (१०) ब्रह्मचर्य। (३) आर्जव; (७) सत्य; प्रकारान्तर में इन दस धर्मों का उल्लेख आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांग, मूलाचार, बारसानुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र, Jain Education International (४) मुक्ति; (८) शौच; २३४ आचारांगनिर्युक्ति २०२-०३ । २३५ उत्तराध्ययनसूत्र ६/५७ । २३६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१६ | (ख) 'उत्तमः क्षमामार्दवआर्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्याग सत्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः || ६ || ' - तत्त्वार्थसूत्र ६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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