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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ११६ नवतत्त्वप्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों में भी व्यापक रूप से उपलब्ध होता है।३७ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि साधक क्रोध से अपने आप को बचाये रखे।२३८ १. क्षमा - क्षमा आत्मा का प्रथम धर्म है। दशवैकालिकसूत्र में बताया गया है कि क्रोध प्रीति का नाशक है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है।२३६ 'मेत्ति भूवेसु कपए' अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति मॅत्री भाव धारण करें। मार्दव - मार्दव का अर्थ है विनम्रता या कोमलता। उत्तराध्ययनसूत्र में कथन है कि धर्म का मूल विनय है।२४० साधक विनय से अहंकार पर विजय प्राप्त कर सकता है।४१ दशवैकालिकसूत्र में भी विनय का विस्तृत विवेचन मिलता है।२४२ ३. आर्जव - निष्कपटता या सरलता आर्जव गुण है। सरल हृदय में ही धर्म का वास हो सकता है।४३ आचारांगसूत्र में कहा गया है कि कथनी और करनी मे २. -नवतत्त्वप्रकरण । २३७ (क) आचारांगसूत्र १/६/५ । (ख) स्थानांगसूत्र १०/१४ । (ग) समवायांगसूत्र १०/६ । (घ) मूलाचार ११/१५ । (च) तत्त्वार्थसूत्र ६/१२ । (छ) बारसानुवेक्खा ७१ । (ज) 'खंती मद्दव अज्जव, मुत्ती तव संजमे अ बोधव्वे । सच्चं सोअं आकिंचणं च बंभं च जइ धम्मो ।। २६ ।। उत्तराध्ययनसूत्र ४/१२ । 'जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्ढई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्म समायरे ।। ३५ ।।' वही १/४५ । (क) उत्तराध्ययनसूत्र ४/१२ । (ख) 'कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय-नासणो । ___ माया मित्ताणी नासेइ, लोहो सब्व-विणासणो ।।३७।।' २४२ देखें दशवैकालिकसूत्र, नवम अध्ययन ।। २४३ 'सोहि उज्जु भुएषु धम्मो सुद्धस्सचिट्टई ।।१२।। TRE -दशवैकालिकसूत्र ८ । -दशवैकालिकसूत्र ८ । -उत्तराध्ययनसूत्र ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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