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________________ १२० जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना एकरूपता ही सरलता है।४४ ४. मुक्ति - मुक्ति का अर्थ निर्लोभता है। लोभ वृत्ति का त्याग ही मुक्ति धर्म है। तप - आत्मा को विशुद्ध करने के लिए या कर्मों की निर्जरा के लिए तप किया जाता है।। ६. संयम - मन, वचन तथा काया की प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करना अर्थात् विवेकपूर्ण प्रवृत्ति करना ही संयम है। समवायांगसूत्र में संयम को सत्रह प्रकार का बताया गया है।२४५ ७. सत्य - सत्यधर्म से तात्पर्य है, सत्यता या ईमानदारी से जीवनयापन करना एवं असत्य भाषण से विरक्त रहना। ८. शौच - यह 'शुचेर्भावः शौचम' अर्थात पवित्रता का सूचक है। शौच का सामान्य अर्थ दैहिक पवित्रता या शारीरिक शुद्धि होता है। अकिंचनता - मूलाचारवृत्ति में परिग्रह का त्याग अकिंचनता बताया गया है। अकिंचनता का व्युत्पत्तिपरक अर्थ 'नास्ति यस्य किंचन सः अकिंचन अकिंचनस्य भाव इति अकिंचनम्' अर्थात् आत्मा के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार का भाव अकिंचन है। तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार शरीरादि में ममत्व भाव का सर्वदा अभाव ही अकिंचनता है।२४७ १०. ब्रह्मचर्य - श्रमण के लिए सभी प्रकार का मैथून त्याज्य है। इसका विस्तृत विवेचन हमने ब्रह्मचर्य महाव्रत में किया है। बारह भावना (अनुप्रेक्षा) जैन धर्म में गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए बारह भावनाओं २४५ २४४ 'जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो। -आचारांगसूत्र १/२/५/१२६ । समवायांगससूत्र १७/२ । देखिये 'मूलाचार - एक समीक्षत्मक अध्ययन' पृ. २२६ । २४७ तत्त्वार्थभाष्य २१३ । २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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