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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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राग-द्वेष के परिणाम न लावे। समत्व भावना में रमण
करे। १४. याचनापरीषह : संयमोपयोगी वस्तुओं की याचना करते
हुए लज्जा न करे।३० १५. अलाभपरीषह : आवश्यक वस्त्र, पात्र, आहार, पानी
आदि सामग्री आदि न मिलने पर साधु लाभान्तराय कर्म
का उदय समझकर उसे समभाव से सहन करे। १६. रोगपरीषह : शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर साधु रूदन
न करे। चिकित्सा के सम्बन्ध में अधीर न होकर उसे असातावेदनीय का उदय समझकर वेदना को समभावपूर्वक
सहन करे। १७. त्रणस्पर्शपरीषह : त्रण आदि की शय्या में सोने तथा मार्ग __ में नंगे पैर चलने से तृण या काँटे आदि चुभने की
वेदना को समभाव से सहन करे।" १८. मलपरीषह : वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के
कारण मैल जम जाए तो भी साधु उद्वेलित न होकर उसे
समभाव से सहन करे।३२ १६. सत्कार-पुरस्कार परीषह : जनता में मानसम्मान होने पर
साधु प्रसन्न न हो और न होने पर खिन्न भी नहीं हो -
समभाव में रहे ।२३३ २०. प्रज्ञापरीषह : साधु अपनी तीव्र बुद्धि का गर्व न करे।
लोगों के विवादादि करने से भी खिन्न होकर यह विचार
नहीं करे कि इससे तो अज्ञानी होता तो अच्छा रहता। २१. अज्ञानपरीषह : यदि साधु की बुद्धि मन्द हो - कदाचित्
परिश्रम करने पर भी शास्त्र आदि का अध्ययन न कर
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-वही ।
'गोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासु त्ति, इइ भिक्खु न चिंतए ।। २६ ।।' 'अचेलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय-विराहणा ।। ३४ ।।' 'किलिनगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । प्रिंसु वा परितावेण, सायं नो परिदेवए ।। ३६ ।।' 'अहो! ते अज्जवं साहु, अहो! ते साहु मद्दवं । अहो! ते उत्तमा खन्ती, अहो! ते मुत्ति उत्तमा ।। ५७ ।।'
-वही।
-वही ।
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-वही अध्ययन ६।
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