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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ११७ राग-द्वेष के परिणाम न लावे। समत्व भावना में रमण करे। १४. याचनापरीषह : संयमोपयोगी वस्तुओं की याचना करते हुए लज्जा न करे।३० १५. अलाभपरीषह : आवश्यक वस्त्र, पात्र, आहार, पानी आदि सामग्री आदि न मिलने पर साधु लाभान्तराय कर्म का उदय समझकर उसे समभाव से सहन करे। १६. रोगपरीषह : शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर साधु रूदन न करे। चिकित्सा के सम्बन्ध में अधीर न होकर उसे असातावेदनीय का उदय समझकर वेदना को समभावपूर्वक सहन करे। १७. त्रणस्पर्शपरीषह : त्रण आदि की शय्या में सोने तथा मार्ग __ में नंगे पैर चलने से तृण या काँटे आदि चुभने की वेदना को समभाव से सहन करे।" १८. मलपरीषह : वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के कारण मैल जम जाए तो भी साधु उद्वेलित न होकर उसे समभाव से सहन करे।३२ १६. सत्कार-पुरस्कार परीषह : जनता में मानसम्मान होने पर साधु प्रसन्न न हो और न होने पर खिन्न भी नहीं हो - समभाव में रहे ।२३३ २०. प्रज्ञापरीषह : साधु अपनी तीव्र बुद्धि का गर्व न करे। लोगों के विवादादि करने से भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करे कि इससे तो अज्ञानी होता तो अच्छा रहता। २१. अज्ञानपरीषह : यदि साधु की बुद्धि मन्द हो - कदाचित् परिश्रम करने पर भी शास्त्र आदि का अध्ययन न कर २३० -वही । 'गोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासु त्ति, इइ भिक्खु न चिंतए ।। २६ ।।' 'अचेलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय-विराहणा ।। ३४ ।।' 'किलिनगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । प्रिंसु वा परितावेण, सायं नो परिदेवए ।। ३६ ।।' 'अहो! ते अज्जवं साहु, अहो! ते साहु मद्दवं । अहो! ते उत्तमा खन्ती, अहो! ते मुत्ति उत्तमा ।। ५७ ।।' -वही। -वही । २३३ -वही अध्ययन ६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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