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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
अधिक न रखे।२२७ ७. अरतिपरीषह : साधु जीवन में सुख-सुविधाओं का अभाव
है, इस प्रकार का विचार न करे। संयम में अरुचि हो
तो भी मन लगाकर उसका पालन करे। ८. स्त्रीपरीषह : स्त्री संग की आसक्ति को बन्धन और पतन
का कारण जानकर साधु स्त्री संसर्ग की इच्छा न करे और साध्वी पुरुष को देखकर अपना मन ब्रह्मचर्य से चलायमान न करे और संयम में दृढ़ रहे । ६. चर्यापरीषह : यहाँ चर्या का अर्थ गमन है। ग्रामानुग्राम
विहार करते हुए मार्ग के कष्टों, कंकर, पत्थर, काँटे, विषम भूमि आदि एवं परिचित-अपरिचित गाँव में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को समभावपूर्वक सहन
करे। १०. निषद्यापरीषह : स्वाध्याय आदि के लिए एकासन से
बैठना पड़े अथवा बैठने के लिए विषम भूमि उपलब्ध हुई हो; तो भी श्रमण मन में दुःखी न होकर समता भाव से
सहन करे। ११. शय्यापरीषह : शय्या योग्य स्थान अच्छा न हो अथवा
उपाश्रय टूटा-फूटा हो - हवादार न हो, तो श्रमण मन में
दुःखी न हो। समभाव से सहन करें।२८ १२. आक्रोशपरीषह : यदि कोई श्रमण को कठोर एवं कर्कश
शब्द कहे अथवा अपशब्द कहे तो भी उन्हें सहन कर
उसके प्रति क्रोध न करे।२२६ १३. वधपरीषह : यदि कोई श्रमण पर प्रहारादि करे एवं
कदाचित् उसका प्राणान्त भी करने के लिए तत्पर हो जाए, तो भी साधु पूर्वकृत कर्मों का विपाक मानकर
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'परिजुण्णेहिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए । अदुण सचेलए होक्खामि, इइ भिक्खू न चिंतए ।। १२ ।।'
-वही। 'पइरिपक्कुवस्सयं लद्धं, कल्लाणमअदु पावगं । किमेगरायं करिइ, एवं तत्थऽहियासए ।। २३ ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २ । 'अक्कोसेज्जा परो भिक्खं न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होई बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।। २४ ।।'
-वही ।
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