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________________ ११६ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना अधिक न रखे।२२७ ७. अरतिपरीषह : साधु जीवन में सुख-सुविधाओं का अभाव है, इस प्रकार का विचार न करे। संयम में अरुचि हो तो भी मन लगाकर उसका पालन करे। ८. स्त्रीपरीषह : स्त्री संग की आसक्ति को बन्धन और पतन का कारण जानकर साधु स्त्री संसर्ग की इच्छा न करे और साध्वी पुरुष को देखकर अपना मन ब्रह्मचर्य से चलायमान न करे और संयम में दृढ़ रहे । ६. चर्यापरीषह : यहाँ चर्या का अर्थ गमन है। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग के कष्टों, कंकर, पत्थर, काँटे, विषम भूमि आदि एवं परिचित-अपरिचित गाँव में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को समभावपूर्वक सहन करे। १०. निषद्यापरीषह : स्वाध्याय आदि के लिए एकासन से बैठना पड़े अथवा बैठने के लिए विषम भूमि उपलब्ध हुई हो; तो भी श्रमण मन में दुःखी न होकर समता भाव से सहन करे। ११. शय्यापरीषह : शय्या योग्य स्थान अच्छा न हो अथवा उपाश्रय टूटा-फूटा हो - हवादार न हो, तो श्रमण मन में दुःखी न हो। समभाव से सहन करें।२८ १२. आक्रोशपरीषह : यदि कोई श्रमण को कठोर एवं कर्कश शब्द कहे अथवा अपशब्द कहे तो भी उन्हें सहन कर उसके प्रति क्रोध न करे।२२६ १३. वधपरीषह : यदि कोई श्रमण पर प्रहारादि करे एवं कदाचित् उसका प्राणान्त भी करने के लिए तत्पर हो जाए, तो भी साधु पूर्वकृत कर्मों का विपाक मानकर २२७ 'परिजुण्णेहिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए । अदुण सचेलए होक्खामि, इइ भिक्खू न चिंतए ।। १२ ।।' -वही। 'पइरिपक्कुवस्सयं लद्धं, कल्लाणमअदु पावगं । किमेगरायं करिइ, एवं तत्थऽहियासए ।। २३ ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २ । 'अक्कोसेज्जा परो भिक्खं न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होई बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।। २४ ।।' -वही । २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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