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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ११५ निम्न प्रकार से है।२२१ १. क्षुधापरीषह : अत्यन्त भूख से पीड़ित होने पर भी साधु नियम विरूद्ध आहार ग्रहण न करे। समभावपूर्वक भूख की वेदना सहन करे ।२२२ २. पिपासापरीषह : श्रमण का प्यास से कण्ठ सूखता हो; तब भी सचित्त जल न पिए, प्यास की वेदना सहन करे।२२३ ३. शीतपरीषह : अत्यधिक शीत लगने पर भी श्रमण अग्नि से तपने की इच्छा न करे।२२४ ४. उष्णपरीषह : अत्यधिक गर्मी होने पर भी श्रमण स्नान या पंखे आदि से वायु सेवन की अभिलाषा न करे ।२२५ ।। ५. दंशमशकपरीषह : डाँस, मच्छर आदि काटने से उन पर क्रोध न करें। समता भाव से सहन करे।२६ ६. अचेलकपरीषह : वस्त्रों के फट जाने से, पुराने हो जाने से या अनुकूल न होने से ग्लानि न लावे। प्रमाण से २२१ २२२ (क) उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २ । (ख) समवायांगसूत्र २२/१ । (ग) 'क्षुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमशकनागन्यारतिस्त्रीचर्या निषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाचना ऽलाभरोग तृणस्पर्शमल सत्कारपुरस्कार प्रज्ञाऽज्ञानदर्शनानि ।। १० ।।' -तत्त्वार्थसूत्र ६। (क) 'दिगिंछापरिग्रह देहे, तवस्सी शिक्खु थामवं । न छिदे न छिंदावए, न पए न पयावए ।। २ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २ । (ख) 'शकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्या ।। १ ।।' -समवायांगसूत्र २२ । (ग) 'क्षुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमश कनागन्यारतिस्त्रीचर्या निषद्याशय्याऽऽकोशवधयाचना ऽलाभरोग तृण स्पर्शमलसत्कारपुरस्कार प्रज्ञाऽज्ञानदर्शनानि ।। १० ।।'-तत्त्वार्थसूत्र ६ । 'तओ पुठो पिवासाए दो गुंछी लज्जसंजए । सीओदगंन सेविज्जा, वियडस्सेणं चरे ।।४।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २ । 'न में निवारणं अत्थि, छवित्ताणं न बिज्जई । अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ शिक्खू न चिंतए ।। ७ ।।' -वही। 'उण्हाहितत्ते मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ।। ६ ।।' -वही। 'पुट्ठो यदंसमसएहिं, समरेव महामुणी ।। नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ।। १० ।।' -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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