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________________ ११४ कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करना कायगुप्ति है । परीषह : २१७ २१८ श्रमण साधक द्वारा साधना मार्ग में अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को समभावपूर्वक सहन करना परीषह कहा जाता है । स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है कि समभावपूर्वक परीषह सहन करने वाले साधक की कर्म निर्जरा होती है । तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि साधक मोक्षमार्ग से च्युत न हो तथा कर्म निर्जरा के लिए जो कुछ सहने योग्य है, वह परीषह है । २६ जीवन में परीषह को सहन करना आवश्यक मानता है । तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है 1 लेकिन परीषह में आकस्मिक रूप से जो संकट उपस्थित हो जाते हैं; उन्हें सहन किया जाता है । श्रमण जीवन की साधना में बाधक परिस्थितियाँ परीषह कहलाती हैं । परीषह का शाब्दिक अर्थ 'परि' अर्थात् समग्र रूप से अथवा अविचलित भाव से एवं ' षह' अर्थात् सहन करना । श्रमण साधना का मुख्य मार्ग समत्व है । संयम यात्रा में समत्व से विचलित होने के लिए अनेक परिस्थितियाँ आती हैं । उन परिस्थितियों में समभाव रखना या उसे समभावपूर्वक सह लेना परीषहजय है । दशवैकालिकसूत्र में परीषहजय को मुनि का कर्त्तव्य बताया गया है | २२० उत्तराध्ययनसूत्र, समवायांग, तत्त्वार्थसूत्र आदि में बाइस परीषहों का विवेचन किया गया है। साथ ही उन पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा भी दी गई है । यह बाइस परीषह २१७ वही टीका पत्र १२६ । स्थानांगसूत्र ५/१/७४ । 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ।। ८ ।। ' (क) 'आयवयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिलीणा संजया सुसमाहिया ।। १२ ।। ' (ख) 'परीसह रिऊदंता धुऽमोहा जिइंदिया । सव्व दुक्ख प्पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ।। १३ ।।' २१८ २१६ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना २२० Jain Education International For Private & Personal Use Only तत्त्वार्थसूत्र ६ । - दशवैकालिकसूत्र ३ । -वही । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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