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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ११३ १. मनोगुप्ति; २. वचनगुप्ति; और ३. कायगुप्ति। १. मनोगुप्ति : अशुभ प्रवृत्ति से मन को हटाकर शुभ प्रवृत्ति या समत्व की ओर अभिमुख होना मनोगुप्ति है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को व्यवहारनय से मनोगुप्ति कहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी मनोगुप्ति के चार प्रकार बताये गए हैं : सत्य, असत्य, सत्यमृषा और असत्यअमृषा। २. वचनगुप्ति : अशुभ एवं असत्य वचन व्यवहार का परित्याग करना वचन गुप्ति है। पाप की हेतुभूत स्त्रीकथा, राजकथा, देशकथा, भक्तकथा इत्यादि वचनों का परिहार करना ही वचनगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी मनोगुप्ति के चार प्रकार बताये गए हैं : सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार।१४ कायगुप्ति : काया के व्यापार से निवृत हो जाना कायगुप्ति है। बन्धन, छेदन, मारन, आकुंचन (संकोचना) तथा प्रसारण इत्यादि काय क्रियाओं से निवृत्ति को कायगुप्ति कहते हैं।२१५ उत्तराध्ययनसूत्र के उन्नीसवें अध्ययन में मनोगप्ति, वचनगप्ति और कायगुप्ति के फल को परिभाषित किया गया है। वह इस प्रकार है१६ : मन को नियन्त्रित करके समत्वयोग में एकाग्र रहना मनोगुप्ति है। वचन को नियन्त्रित करके समभाव में स्थिर बनना वचनगुप्ति है। .३. २११ -नियमसार ४ । 'कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं । परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।। ६६ ।।' उत्तराध्ययनसूत्र २४/२० । 'थी राजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स । परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ।। ६७ ॥' उत्तराध्ययनसूत्र २४/२२-२३ । 'बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया । कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति ।। ६८ ।।' उत्तराध्ययनसूत्र २६/५४-५५ । -वही । २१४ 30 -वही । २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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