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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
उपभोग में सावधानी।०६ ४. आदान निक्षेप समिति : वस्त्र, पात्र आदि उपधि को उठाने एवं
रखने में सावधानी।२०७ ५. उच्चार प्रस्रवण समिति : मूल मूत्रादि का विसर्जन करने में
सावधानी।०८ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि अपनी शारीरिक गन्दगी को ऐसे स्थान पर परठे जहाँ जीवों की
विराधना न हो। गुप्ति
गुप्ति शब्द गोपन से बना है; जिसका अर्थ है खींच लेना - दूर कर लेना। इसका दूसरा अर्थ ढंकनेवाला या रक्षा कवच भी है। प्रथम अर्थ के अनुसार मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना ही गुप्ति है और दूसरे अर्थ में आत्मा की अशुभ से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्ति के बिना कर्मों का संवर नहीं हो सकता। भगवतीआराधना, मूलाचार आदि आगमों में कहा है कि जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए बाढ़ होती है, उसी प्रकार पाप को रोकने के लिए गुप्ति होती है।०६ सामान्यतः गुप्ति का अर्थ निवृत्तिपरक है। गुप्तियाँ तीन प्रकार की हैं :२१०
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२०६ 'कदकारिदाणुमोदणरहिंद तह पासुगं पसत्थं च । दिण्णपरेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ।। ६३ ।।'
-वही । 'पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो। आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति ििद्दट्ठा ।। ६४ ।।'
वही । (क) 'उच्चारं पासवणं, खेलं सिघांणजल्लियं ।
आहारं उवहिं देहं, अनं वाहि तहाविहं ।। १५ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २४ । (ख) 'पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ।। ६५ ।।'
-नियमसार । (क) भगवतीआराधना गा. ११८६ । (ख) मूलाधार गा. ३३४ ।। (क) 'इरिया भाषेषणादाणे, उच्चारे समिईसुअ ।
मणगुत्ति वयगुत्ति, कायगुत्ति तहेव या। २६ ।।' (ख) 'इरिया भाषेषणादाणे, उच्चारे समिई इय ।
मणगुति वयगुति, कायगुती य अट्ठमा ।।२।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २४ । (ग) 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ।। ४ ।'
-सर्वार्थसिद्धि । (घ) तत्त्वार्थवार्तिक ६/४/४ । (च) तत्त्वार्थसार ६/४ ।
-नवतत्त्व प्रकरण ।
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