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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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पूर्णतः त्याग कर देता है। वह जीव हिंसा के कारण अर्थात् नौकरी, खेती, व्यापार आदि आरम्भ के कार्यों से विरक्त हो जाता है ।
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८. परिग्रह - विरत प्रतिमा : समत्वी साधक परिग्रह से पूर्णरूप से विरत हो जाता है । २४
६. अनुमति-विरत प्रतिमा : समत्व साधना की इस कक्षा में पहुँचने वाला साधक आदेश उपदेशों से पूर्णतः विरत हो
जाता है ।१२५
इस प्रकार ये पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएँ गृहस्थ श्रावक के लिए समत्व की ओर अभिमुख
१२३ (क) 'जं किंचि गिहारंभं बहु थोवं वा सयाविवज्जेइ ।
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१०. उद्दिष्टभक्त- वर्जन प्रतिमा : समत्वी श्रावक अपने निमित्त बना हुआ भोजन त्याग देता है । लेकिन सिर मुण्डन उस्तरे से कराता है । १२६ दिगम्बर परम्परा में इसे
कहा है ।
अनुमति -त्याग प्रतिमा ११. श्रमणभूत प्रतिमा : इस प्रतिमा को धारणकरने वाला गृहस्थ श्रमण के सदृश बन जाता है I
आरम्भणियत्तमई सो अट्ठसु सावओ भणिओ ।। २६८ ।।' (ख) 'जो आरम्भ ण कुणदि अण्णं ण कारयदि व अणुमण्णे । हिंसा संतट्ठमणो चत्तारंभी हवे सो हु ।। ३८५ ।।' (क) 'जो परिवज्जइ गंथं, अब्यंतर बाहिरं च साणंदो । पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ।। ३८६ ।। ' (ख) ' मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं ।
- वसुनन्दिश्रावकाचार ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो || २६६ । । ' - वसुनन्दिश्रावकाचार । (क) 'पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहिं च सगिहकज्जमि ।
अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावओ दसम || ३०० ।। ' - वसुनन्दिश्रावकाचार | (ख) 'अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा ।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ।। १४६ । । ' - रत्नकरण्डक श्रावकाचार | (ग) 'जो अणुमणणं ण कुणदि गिहत्य- कज्जेसु-पाव मूलेसु ।
-चही ।
भवियव्वं भावंतो अणुमण-विरओ हवे सो दु ।। ३८८ ।। ' - कार्तिकेयानुप्रेक्षा । (क) 'जो णव कोडि विसुद्धं, भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं । जायणरहियं जोग्गं, उद्दिट्ठाहारविरदो सो ।। ३६० ।। ' (ख) 'व्रतं चैकादशस्थानं नाम्नानुद्दिष्टशेजनम् । अर्थादीषन्मुनिस्तद्वान्निर्जराधिपतिः पुनः ।। ५२ ।।'
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-रत्नकरण्डक श्रावकाचार ६ ।
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