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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
मन, वचन और काया तथा कृत-कारित और अनुमोदन इन नौ (३४३) कोटियों सहित करना होता है।
डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन' में इन पंचमहाव्रतों की विस्तृत चर्चा की है।' यहाँ हम उसी आधार पर उनका संक्षिप्त रूप से प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं।
अहिंसा महाव्रत :
समत्वयोग के साधक श्रमण को सर्वप्रथम 'स्व' और 'पर' हिंसा से विरत होना आवश्यक होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह
आदि दूषित मनोवृत्तियों से आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व-हिंसा है। दूसरे प्राणियों को पीड़ा या हानि पहुँचाना पर-हिंसा है। समत्वयोगी को जगत् के सभी त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से विरत होना आवश्यक है। क्योंकि जहाँ हिंसा है, वहाँ समत्वयोग (सामायिक) की साधना सम्भव नहीं है। हिंसा का विचार ही हमारी आन्तरिक समता को भंग कर देता है। हिंसा के लिए द्वेष बुद्धि अपरिहार्य है और जहाँ द्वेष है, वहाँ समता का अभाव है। अतः समत्वयोग की साधना अहिंसा की साधना है। दूसरे, हिंसा बाह्य जगत् के समत्व को भंग करती है। उससे सामाजिक शान्ति या परिवेश की शान्ति भंग होती है। अतः हिंसा का त्याग समत्वयोग की साधना का प्रथम चरण है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि भिक्षु जगत् में जितने भी प्राणी हैं उनकी हिंसा जानकर अथवा अनजान में न करे, न करावे और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन करे।२९ जैनदर्शन अत्यन्त सूक्ष्म है। वह मानता है कि दूसरे की हिंसा के विचार मात्र से, चाहे दूसरों की हिंसा हो या न भी हो, स्वयं के आत्मगुणों का घात होता है और आत्मा कर्म मल
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१३४ (क) 'जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाण मजाणं वा, न हणे न हणावए ।।६।।
-दशवैकालिकसूत्र ६ । (ख) 'जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ।। १० ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ८।
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