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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
लिए साधु को यही निर्देश दिया गया है कि वह प्रत्येक कार्य का सम्पादन करते समय सजग रहे, ताकि किसी प्रकार की हिंसा सम्भव न हो। अहिंसा महाव्रत के सम्यक् पालन के लिए पांच भावनाओं का विधान है :१३६ १. ईर्यासमिति : चलते फिरते या उठते बैठते समय
सावधानी रखना। २. वचनसमिति : हिंसक अथवा किसी के मन को दुःखाने
वाले वचन नहीं बोलना। ३. मनसमिति : मन में हिंसक विचारों को स्थान नहीं देना। ४. एषणासमिति : अदीन होकर ऐसा निर्दोष आहार प्राप्त
करने का प्रयास करना, जिससे श्रमण का जीवन गृहस्थों
पर भार स्वरूप न हो।। ५. निक्षेपणासमिति : साधु जीवन के पात्रादि उपकरणों को
सावधानीपूर्वक प्रमार्जन करके उपयोग में लेना अथवा उन्हें रखना और उठाना। समवायांगसूत्र एवं प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी अहिंसा व्रत की पांच भावनाओं का उल्लेख किया गया है।
अहिंसा भारतीय संस्कृति का प्राण है। अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जैन श्रमण का प्रथम व्रत ही अहिंसा महाव्रत है। जैन आगमों में 'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' शब्दों का प्रयोग मिलता है,२७ जिसका अर्थ हिंसा से पूर्णतः विरत होना है। यही व्याख्या उत्तराध्ययनसूत्र में भी मिलती है कि किसी भी परिस्थिति में त्रस एवं स्थावर जीवों को दुःखी न करना अहिंसा महाव्रत है। जो हिंसा की अनुमोदना करता है, वह दुःख से मुक्त नहीं हो
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(क) आचारांगसूत्र २/१५/१७६ । (ख) वही २/१५, ४४-४६ । (ग) समवायांगसूत्र २५/१ । (घ) प्रश्नव्याकरणससूत्र ६/१/१६ ।
स्थानांगसूत्र ४/१३१ । _ 'जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं ।
नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ।। १० ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ८ ।
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