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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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___वास्तविकता यह है कि इन विवेचन शैलियों में विभिन्नता होते हुए भी विषय वस्तु समान ही है। अन्तर विवेचन शैली में है। वस्तुतः ये एक-दूसरे की पूरक हैं। गृहस्थ साधकों के दो प्रकार :
सभी गृहस्थ उपासक साधना की दृष्टि से समान नहीं होते हैं। उनमें श्रेणी भेद होता है। गुणस्थान-सिद्धान्त के अनुसार गृहस्थ उपासकों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है :
१. अविरत (अव्रती) सम्यग्दृष्टि और
२. देशविरत (देशव्रती) सम्यग्दृष्टि। अविरत सम्यग्दृष्टि उपासक वे हैं, जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की साधना में पूर्ण निष्ठा रखते हैं, किन्तु आत्मानुशासन या संयम की कमी के कारण वे सम्यक्चारित्र की साधना में आगे नहीं बढ़ पाते। उनकी श्रद्धा और ज्ञान यथार्थ होता है, लेकिन आचरण सम्यक् नहीं होता। वासनाएँ बुरी हैं, यह जानते हुए और मानते हुए भी वे अपनी वासनाओं पर अंकुश लगाने में असमर्थता अनुभव करते हैं। मगधाधिपति श्रेणिक आदि को इसी वर्ग का उपासक माना गया है। __ देशविरत सम्यग्दृष्टि वे गृहस्थ उपासक कहलाते हैं, जो यथार्थ श्रद्धा के साथ-साथ यथाशक्ति सम्यक् आचरण के मार्ग में आगे बढ़ कर. अपनी वासनाओं पर अंकुश लगाते हैं। अहिंसा आदि अणुव्रतों का पालन करनेवाला उपासक ही देशव्रती सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। आनन्द आदि गृहस्थ उपासक इसी वर्ग में आते हैं।
पण्डित आशाधरजी ने अपने गृहस्थ सागरधर्मामृत में गृहस्थ उपासकों के तीन भेद किये हैं :८३
१. पाक्षिक; २. नैष्ठिक; और ३. साधक।
८२ देखें 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २६४ ।
-डॉ. सागरमल जैन। ८३ देखें 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २६५ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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