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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
__ अन्यत्र निम्न पांच अतिचार भी वर्णित हैं : १. बिना सोचे-विचारे किसी पर मिथ्या दोषारोपण करना; २. एकान्त में वार्तालाप करनेवाले पर मिथ्या दोषारोपण करना; ३. स्व-स्त्री/स्व-पुरुष की गुप्त एवं मार्मिक बात को प्रकट करना; ४. मिथ्योपदेश या झुठी सलाह देना; और ५. झुठे दस्तावेज लिखवाना।।
जो श्रावक हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को सन्तोष उत्पन्न हो, ऐसे वचन बोलता है, जिनसे धर्म का प्रकाश हो ऐसे वचन कहता है - वही श्रावक दूसरे अणुव्रत का धारी होता है।
३. अचौर्य अणुव्रत : श्रावक के इस तीसरे अचौर्य अणुव्रत को 'स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत' भी कहा जाता है। श्रावक स्थूल चोरी से विरत होने के लिए यावज्जीवन मन, वचन, कर्म से प्रतिज्ञा करता है कि “न तो स्थूल चोरी करूंगा और न ही कराऊंगा।" उपासकदशांगसूत्र, वंदित्तुसूत्र आदि में अदत्तादान के निम्न पांच अतिचार उपलब्ध हैं :
१. चोरी का माल खरीदना; २. चोर को चोरी के लिए प्रोत्साहित करना या उसके कार्यों में
सहयोग देना; ३. राज्य विरूद्ध व्यापार आदि करना; ४. नाप-तौल में कमी करके ग्राहक को माल देना और वृद्धि करके
लेना; और ५. माल में मिलावट करके बेचना।
४. ब्रह्मचर्य अणव्रत : श्रावक को इस चौथे ब्रह्मचर्य अणुव्रत को 'स्वदारासन्तोषव्रत' या 'स्वपति/पत्नी सन्तोषव्रत' भी कहा जाता है। उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक ब्रह्मचर्य अणुव्रत की प्रतिज्ञा इस प्रकार करता है कि “मैं स्वपत्नी सन्तोष व्रत ग्रहण करता हूँ। स्वपत्नी शिवानन्दा के अतिरिक्त सभी प्रकार के मैथुन का त्याग
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"हिद मिद वयणं भासदि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासाणवयणं अणुव्वदि होदि सो बिदिओ ।।३३४ ।।' 'तेनाहडप्पओगे, तप्पडिरूवे विरूद्धगमणे अ । कूडतुलकूडमाणे, पडिक्कमे राइयं सव्वं ।।१४ ।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
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-वंदित्तुसूत्र ।
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