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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
होती है। वंदित्तुसूत्र में निम्न नौ प्रकार से परिग्रह की सीमा निर्धारित की गई है :
१. क्षेत्र - कृषि योग्य क्षेत्र (खेत) या अन्य खुला हुआ भूमि भाग; २. वास्तु - निर्मित भवन आदि; ३. हिरण्य अर्थात् चांदी; ४. स्वर्ण अर्थात् सोना; ५. द्विपद - दास, दासी आदि नौकर; ६. चतुष्पद - गाय, बैल आदि; ७. धन-मुद्रा आदि; ८. धान्य - अनाज आदि; और ६. कुप्य-घर-गृहस्थी का अन्य सामान ।
उपासकदशांगसूत्र में 'परिग्रहपरिमाणवत' को 'इच्छापरिमाणवत' भी कहा गया है।
इस प्रकार नौ प्रकार के परिग्रह का परिसीमन गृहस्थ श्रावक के लिए आवश्यक है। राग-द्वेष, कषाय आदि का त्याग एवं परिसीमन भी आवश्यक है।
तीन अणुव्रत
६. दिग्परिमाणव्रत : यह श्रावक गृहस्थ का प्रथम गुणव्रत है। दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा को निश्चित करना 'दिग्परिमाणवत' है।०० योगशास्त्र के अनुसार चार दिशा (पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण), विदिशा (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य), ऊर्ध्व दिशा एवं अधोदिशा - इन दस दिशाओं में व्यवसाय एवं भोगोपभोग के निमित्त गमनागमन की सीमा निश्चित करना
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-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ८ ।
'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।। १७ ।। 'घण-घन्नखित्त-वत्थू रूप्प सुबत्रे अ कुविअ परिमाणे । दुपए चउप्पयम्मि य, पडिक्कमे राइयं सव्वं ।।१८ ।।' उपासकदशांगससूत्र १/२८ । 'जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उवओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ।।'
-वंदित्तुसूत्र ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३४२ ।
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