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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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दिग्परिमाणव्रत है।०१
७. उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत : योगशास्त्र एवं रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भोग एवं उपभोग शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है। एक बार जो पदार्थ भोगने में आता है, वह है भोग और जो पदार्थ बार-बार भोगने में आता है, वह उपभोग है। इस प्रकार आचार्य अभयदेवसूरि ने उपासकदशांगसूत्र की टीका में भी इस तरह वर्णन किया है कि जो अनेक बार उपयोग में आए, वह सामग्री उपभोग तथा जो एक बार उपयोग में आए, वह सामग्री परिभोग है।०३ कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार भोजन, ताम्बूल आदि एक बार भोगने योग्य पदार्थों को भोग कहते है और वस्त्र, आभूषण आदि बार-बार भोगने योग्य पदार्थों को उपभोग कहते हैं। इनका परिमाण यावज्जीवन भी होता है और नित्य नियम रूप में भी होता है। यथाशक्ति इसका नियम ले सकते हैं। इस प्रकार सातवें व्रत में प्रयुक्त उपभोग के अर्थ में भिन्नता मिलती है। अभिधानराजेन्द्रकोश एवं भगवतीसूत्र में उपभोग का अर्थ बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री से किया गया है।०५ आवश्यकसूत्र की वृत्ति में इसी व्रत का समर्थन किया गया है तथा धर्मसंग्रह में भी ऐसा ही अर्थ उपलब्ध होता है।०६
८. अनर्थदण्ड विरमणव्रत : अनर्थ अर्थात् निरर्थक - जो क्रियाएँ जीवन-व्यवहार के लिए निष्प्रयोजन हैं, वह अनर्थदण्ड है और जो क्रियाएँ जीवन-व्यवहार के लिए आवश्यक हैं वह अर्थदण्ड
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-योगशास्त्र ३ ।
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-योगशास्त्र ३.
-रत्नकरण्डक श्रावकाचार ।
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'दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद् गुणव्रतम ।।१।। (क) 'भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते ।
भोगोपभोगमानं तद् द्वैतीयीकं गुणव्रतम् ।। ४ ।।' (ख) भुक्त्वा संत्यस्यते वस्तु सशेगः परिकीर्त्यते ।
उपशेगो सकृद्वारं भुज्यते च तयोर्मितिः ।।३८/६८।।' उपासकदशांगसूत्र टीका पत्र १० । 'जाणित्ता संपत्ती भोयणतंबोलवत्थमादिणं । जं परिमाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स ।।' अभिधानराजेन्द्रकोश भाग २ पृ. ८६६ । (क) 'जैन आचार सिद्धांत और स्वरूप' पृ. ४२० । (ख) धर्मसंग्रह ३३० ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३५० ।
-देवेन्द्रमुनि ।
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