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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
करता हूँ।"६२ आवश्यकसूत्र में भी अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष रखकर अन्य सभी मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार चारित्रमोहनीय का उदय होने पर राग से आक्रान्त स्त्री-पुरुष में परस्पर स्पर्श की आकांक्षा जन्य क्रिया मैथुन कहलाती है।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत को ग्रहण करने से श्रावक श्रमण की तरह पूर्णतः काम-वासना से विरत नहीं होता, परन्तु वह संयत हो जाता है। स्व-स्त्री के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों के संसर्ग को त्याग देता है।५ वसुनन्दीश्रावकाचार के अनुसार जो श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह स्थूल ब्रह्मचारी कहलाता है। इस अणुव्रत में भी पांच अतिचारों से बचना आवश्यक बताया गया है। १. इत्वरपरिगृहीतागमन; २. अपरिगृहीतागमन; ३. अनंगक्रीड़ा; ४. परविवाहकरण; और ५. कामभोगतिव्राभिलाषा।
५. अपरिग्रह अणुव्रत : श्रावक को इस ५वें 'परिग्रहपरिमाणवत' का पालन करना आवश्यक है। श्रावक के लिए अपरिग्रह शब्द परिग्रह के पूर्ण अभाव का सूचक न होकर सीमितता का सूचक है। श्रावक श्रमण के समान पूर्ण रूप से निष्परिग्रही नहीं हो सकता; किन्तु मर्यादा निर्धारित कर सकता है। यह कहा जाता है कि साधु कोड़ी रखे तो कोड़ी का और गृहस्थ के पास कोड़ी न हो तो कोड़ी का अर्थात् गृहस्थ जीवन में अर्थ की भी आवश्यकता होती है। पर आवश्यकता की अपेक्षा आकांक्षा अधिक होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जैसे-जैसे लाभ होता जाता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। अतः इससे बचने के लिए गृहस्थ श्रावक को परिग्रह की सीमा निर्धारित करनी
उपासकदशांगसूत्र १/१६ (लाडनूं पृ. ४००) । __ आवश्यकसूत्र (परिशिष्ट पृ. २२) ।
तत्त्वार्थसूत्र ७/१३ (सर्वार्थसिद्धि)। कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३३८/१५३ । वसुनन्दी श्रावकाचार २/२ ।
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