________________
७६
जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
के वर्गीकरण का आधार नहीं है। गृहस्थ और श्रमण साधक के विभेद का प्रमुख आधार सम्यक्चारित्र है। गृहस्थ साधक भी मानसिक दृष्टि से प्रशस्त भावनावाला हो सकता है। लेकिन परिस्थितियों के वश उसका पूर्णरूप से पालन नहीं कर पाता है। वह उसका आंशिक रूप से ही पालन करता है। यही उसका श्रमण साधक से अन्तर है। गृहस्थ उपासक और श्रमण साधक की साधना में महत्त्वपूर्ण अन्तर तो उनकी अणुव्रतों एवं महाव्रतों की साधना को लेकर हैं। जैसे, श्रमण त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा का परित्याग करता है; जबकि गृहस्थ मात्र संकल्प युक्त त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है। श्रमण पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है; जबकि गृहस्थ साधक स्व-पत्नी सन्तोष का व्रत लेता है। श्रमण समग्र परिग्रह का त्याग करता है; जबकि गृहस्थ परिग्रह की सीमा निश्चित करता है। गृहस्थ और श्रमण - दोनों ही अहिंसा के विचार में पूर्ण निष्ठा रखते हुए भी गृहस्थ साधक सुरक्षात्मक और
औद्योगिक हिंसा के कुछ रूपों से नहीं बच पाता है; जबकि श्रमण साधक उसका पूर्णरूपेण पालन करता है।
इसी प्रकार गृहस्थ और श्रमण की साधना के अन्तर का मुख्य आधार व्रतों के आंशिक या पूर्ण परिपालन से है। साधना की मूलात्मा या साधना की आन्तरिक दृष्टि से दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। साधना के आदर्शों को जीवन में क्रियान्वित कर पाने में ही गृहस्थ और श्रमण साधना में अन्तर माना जा सकता
गृहस्थ धर्म की विवेचन शैली :
जैन परम्परा में श्रावक-धर्म या उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन विभिन्न शैलियों में हुआ है। उपासकदशांगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्रद्धा (सम्यक्त्व) ग्रहण, व्रत ग्रहण और समाधिमरण (मरणान्तिक अनशन) के रूप में श्रावक धर्म का प्रतिपादन है। दशाश्रुतस्कंध, आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्रप्राभृत, कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा वसुनन्दीश्रावकाचार में दर्शन-प्रतिमादि ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में क्रमशः श्रावक धर्म का प्रतिपादन है एवं श्रावक धर्म की उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाओं को दिखाया गया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org