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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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महावीर से तत्त्वचर्चा करती थी। इसका अर्थ है कि जैन परम्परा में तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना श्रावक एवं मुनि दोनों का कर्तव्य था। जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को जानकर उन पर श्रद्धा रखना, यह मुनि एवं गृहस्थ उपासक दोनों की ही श्रुतधर्म की साधना है। इसका विस्तृत विवेचन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में हुआ है। अतः यहाँ इस पर अधिक चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। चारित्र के द्विविध भेद :
स्थानांगसूत्र में दो प्रकार के चारित्रधर्म का विवरण किया गया है :- १. अनगार धर्म; और २. सागार धर्म।
जैन और बौद्ध परम्परा में अनगार धर्म को श्रमण धर्म या मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म को उपासक धर्म या सागार धर्म के नामों से भी अभिहित किया गया है। आगार शब्द गृह या आवास के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका लाक्षणिक अर्थ है - पारिवारिक जीवन। अतः जिस धर्म का परिपालन पारिवारिक जीवन में रहकर किया जा सके, उसे सागार धर्म कहा जाता है। 'आगार' शब्द जैन परम्परा. में छूट, सुविधा या अपवाद के अर्थ में भी रुढ़ हुआ है। जैन विचारणा में गृहस्थ धर्म को देशविरति चारित्र या विकल चारित्र और श्रमण धर्म को सर्वविरति चारित्र या सकल चारित्र कहा गया है। जिस साधना में अहिंसादि व्रतों की साधना पूर्णरूपेण हो, वह सर्वविरति या सकल चारित्र है। गृहस्थ पारिवारिक जीवन के कारण अहिंसादि व्रतों की पूर्ण साधना नहीं कर पाता है। अतः उसकी साधना को देशचारित्र, अंशचारित्र या विकलचारित्र कहते हैं। समत्वयोग की साधना की दृष्टि से विचार करें, तो मुनि विराग और वीतरागता का जीवन जीता है। वह समत्वयोग की पूर्ण साधना करता है। किन्तु गृहस्थ पूर्णतः विराग या वीतरागता का जीवन नहीं जी पाता है। अतः वह समत्वयोग
भगवतीसूत्र । स्थानागसूत्र २/१ । अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड २ पृ. १०६ । अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड २ पृ. १०४ ।
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