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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
बन जाती है। सम्यक्चारित्र का काम आत्म विशुद्धि है दूसरे शब्दों में कहें तो राग-द्वेष और कषायजन्य तनावों को समाप्त करना है I हमारे कषाय और राग-द्वेष कैसे समाप्त हों, उसकी साधना ही समत्वयोग की साधना है । इस प्रकार सम्यक् चारित्र की साधना वस्तुतः समत्वयोग की साधना है 1 वह राग-द्वेष और कषायों को समाप्त करने की प्रक्रिया है। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह समत्व है और आत्मा की मोह और क्षोभ से रहित शुद्ध अवस्था ही समत्व है । ६६ इस प्रकार समत्वयोग और सम्यक्चारित्र एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। पंचास्तिकायसार में वे इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “समभाव ही चारित्र है । ६७ पूर्व में हमने यह बताया है कि समत्वयोग की साधना सामायिक की साधना है । जैनदर्शन में चारित्र की चर्चा करते हुए उसके पांच प्रकारों में प्रथम प्रकार सामायिक चारित्र ही बताया है । इस दृष्टि से भी समत्वयोग और सम्यक्चारित्र एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत नहीं होते हैं । सम्यक्चारित्र समत्वयोग का व्यावहारिक पक्ष है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “ चारित्र का सच्चा स्वरूप समत्व की उपलब्धि है। चेतना में जब राग-द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है ।६६ जैनदर्शन में चारित्र के दो रूप कहे गये हैं :
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१. निश्चयचारित्र और २. व्यवहारचारित्र । निश्चयचारित्र राग-द्वेष, कषाय, विषय-वासना, आलस्य और प्रमाद रहित होकर आत्मतत्त्व में रमण करना है; जबकि व्यवहारचारित्र पंचमहाव्रत, तीन गुप्ति, पंचसमिति आदि आचरण के बाह्य पक्षों का परिपालन करना है । वस्तुतः बिना निश्चयचारित्र के व्यवहारचारित्र सफल नहीं हो सकता । जैनदर्शन में सम्यक्चारित्र
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प्रवचनसार १/७ ।
पंचास्तिकायसार १०७ ।
'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ८५ ।
डॉ. सागरमल जैन ।
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