________________
जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
m
कारण माना गया है। यदि हम समत्वयोग की साधना की दृष्टि से सम्यक्चारित्र पर विचार करें, तो वह समत्वयोग की साधना का ही एक रूप है। बिना सम्यक् आचरण या सम्यकुचारित्र के समत्वयोग की साधना पूर्ण नहीं होती। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में श्रद्धा और ज्ञान का अपना महत्त्व है, किन्तु आचरण के सम्पूट के बिना श्रद्धा और ज्ञान का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के बिना आचरण सम्यक् नहीं होता और बिना सम्यक् आचरण के मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। बिना मोक्ष की प्राप्ति के निर्वाण अर्थात् समस्त दुःखों का अन्त नहीं होता। इस प्रकार जैन साधना में श्रद्धा और ज्ञान के साथ-साथ चारित्र का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हुआ है। समत्वयोग की साधना की पूर्णता सम्यक्चारित्र में ही होती है। यदि व्यक्ति का जीवन इच्छाओं और आकाँक्षाओं से परिपूर्ण है, तो वह समत्वयोग की साधना नहीं कर पायेगा। क्योंकि इच्छाओं की उपस्थिति में चित्तवृत्तियों में विचलन (तनाव) बना रहेगा।
समत्वयोग का मुख्य लक्ष्य तो शुद्ध आत्मतत्त्व के स्वरूप में निमग्न रहना है। सम्यग्दर्शन के द्वारा हमें आत्मा के शुद्ध स्वरूप की अनुभूति हो सकती है, किन्तु वह अनुभूति क्षणिक ही रहेगी; क्योंकि जब तक ज्ञान और आचरण का सम्बल प्राप्त नहीं होगा, तब तक आत्मा की शुद्ध स्वरूप में स्थायी अवस्थिति सम्भव नहीं है। सम्यग्दर्शन हमें उस शुद्ध आत्मतत्त्व की एक झलक दे सकता है। सम्यग्ज्ञान भेदविज्ञान के द्वारा हमें आत्म-अनात्म का विवेक सीखा सकता है। उसके माध्यम से हम यह भी जान सकते हैं कि आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है? दूसरे शब्दों में स्वभाव क्या है और विभाव क्या है? किन्तु उस शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति बिना सम्यक्चारित्र के सम्भव नहीं है। समत्वयोग की साधना आत्मानुभूति और आत्मा-अनात्मा के विवेक में ही पूर्ण नहीं होती है। वह तो परमात्म या आत्मसत्ता के साथ तादात्म्य की अवस्था है। दूसरे
६४ 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥३०॥'
-उत्तराध्ययनसूत्र २८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org