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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
२.३ सम्यक्चारित्र :
आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता के लिए सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ सम्यक्चारित्र या समत्वयोग की भी नितान्त आवश्यकता है। यदि हम सम्यग्दर्शन को श्रद्धा के अर्थ और सम्यग्ज्ञान को भेदविज्ञान के अर्थ में स्वीकार करतें हैं, तो साधना की पूर्णता के लिए सम्यकुचारित्र का स्थान भी स्पष्ट हो जाता है। मार्ग का ज्ञान और उस पर श्रद्धा होते हुए भी उस मार्ग पर चले बिना लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं होती। सम्यक्चारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की यात्रा में बढ़ा हुआ चरण है। जब तक साधक आध्यात्मिक पूर्णता या परमात्मा का साक्षात्कार या अनुभव न करले, तब तक परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था या पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। किन्तु उस श्रद्धा के साथ ज्ञान का समन्वय आवश्यक है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धी होगी। श्रद्धा जब तक ज्ञान एवं स्वानुभूति से समन्वित नहीं होती, तब तक वह श्रद्धा परिपुष्ट नहीं होती है। महाभारत में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने स्वयं के चिन्तन में ज्ञान उपलब्ध नहीं किया, वरन् केवल बहुत सी बातों को सुना ही है, वह शास्त्र को भी सम्यक् रूप से नहीं जान सकता।३ बिना सम्यग्ज्ञान के आचरण सम्यक् नहीं होता।।
चारित्र जीवन की सबसे बड़ी निधि है। इससे ही जीवन में समभाव की साधना सफल होती है। विचार रहित आचार और आचार रहित विचार हमें वांछित परिणाम नहीं दे सकते। आचार धर्म का क्रियात्मक रूप है। परन्तु आचार भी सम्यक विचार से अभिप्रेरित होना चाहिए। आचार और विचार की इसी अन्योन्याश्रितता के कारण ही जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वय से ही मुक्ति सम्भव है। चारित्र का सच्चा स्वरूप समत्व की उपलब्धि है। चारित्र आत्मरमण ही है।
जैनदर्शन में मोक्षमार्ग के तीन अंगों में सम्यकुचारित्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है; क्योंकि उसे मोक्ष का निकटतम या अन्तिम
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महाभारत २/५५/१ ।
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