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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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पर विस्तार से विचार करना चाहें तो समत्व के विचलन के अनेक कारण हैं। जैनदर्शन में बन्ध के जो पांच हेतु माने गये हैं उन्हें समत्व से विचलन का कारण भी कहा जाता है। ये पांच हेतु निम्न
१. मिथ्यात्व; २. अविरति; ३. प्रमाद;
४. कषाय; और ५. योग। समयसार में इनमें से ४ का उल्लेख मिलता है। उसमें प्रमाद का उल्लेख नहीं है।
मिथ्यात्व
समत्व से विचलन का प्रथम हेतु मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का सामान्य अर्थ मिथ्या विश्वास या मिथ्या जीवनदृष्टि है। अनात्म में आत्म बुद्धि रखना या पर को अपना मानना. यह एक मिथ्या दृष्टिकोण है। जहाँ इस प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण होता है, वहाँ ममत्व बुद्धि या रागादि भाव का जन्म होता है। व्यक्ति में जब तक ऐसा भाव उत्पन्न नहीं होता कि समस्त बाह्य पदार्थ सांयोगिक हैं; न तो ये मेरे हैं और न मैं इनका हूँ; तब तक वह उनमें आत्मबुद्धि करके ममत्व या मेरेपन का आरोपण करता है और मेरेपन के इसी भाव के कारण राग का जन्म होता है। जहाँ राग होता है वहीं द्वेष भी होता है। राग-द्वेष की उपस्थिति में चेतना का समत्व भंग हो जाता है और आत्मा अपने समत्व रूप स्वभाव से च्युत होती है। भगवतीआराधना एवं सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है - जीवादि पदार्थों का अश्रद्धान मिथ्यादर्शन है।००
६८ (क) 'पंच आसव दारा पण्णता-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया कसाया जोगा।'
-समवायांग ५/२६ एवं स्थानांगसूत्र ४१८ । (ख) इसिभासिय ६/५; और
(ग) 'मिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद कषाय योगा बन्धहेतवः ।' तत्त्वार्थसूत्र ८/१। ६६ समयसार १७१ ।
(क) 'तं मिच्छतं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं ॥ ५६ ।।' भगवतीआराधना । (ख) सर्वार्थसिद्धि २/६ । (ग) नयचक्र गा. ३०३ ।
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