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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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सम्भव नहीं होता। चित्त में जैसे ही कोई आकांक्षा या इच्छा उत्पन्न होती है तो उसका समत्व विचलित हो जाता है। जिस व्यक्ति में इच्छा और आकांक्षाओं का स्तर जितना तीव्र होता है वह व्यक्ति उतना ही अशान्त रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवन में जब तक इच्छा और आकांक्षाएं बनी हुई हैं तब तक समत्व की साधना या जीवन में समत्व का अवतरण सम्भव नहीं होता। व्यक्ति जितना-जितना इच्छा और आकांक्षाओं से ऊपर उठता है, उतना-उतना वह समत्व की साधना में गतिशील बनता है। यदि गम्भीरता से विचार करें तो चित्तवृत्ति की विषमता का मूल कारण तो लोभ ही है। लोभ से ही इच्छाओं और आकांक्षाओं का जन्म होता है और जब हमारी इच्छा और आकांक्षाओं की पूर्ति में कोई बाधा उपस्थित करता है तो क्रोध का जन्म होता है। दूसरी ओर व्यक्ति इच्छा और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये अनेक प्रकार का मायाचार करता है। इच्छित विषय और आकांक्षाओं की पूर्ति होने पर अहंकार का जन्म होता है। इस प्रकार चारों कषायों के मूल में भी लोभ कषाय की सत्ता बनी रहती है। जैनदर्शन के अनुसार लोभ कषाय की समाप्ति भी सबके अन्त में होती है। आचारांगसूत्र में बताया गया है कि सुख की कामना करनेवाला लोभी बार-बार दुःख का प्राप्त करता है। सामान्य भाषा में लोभ को पाप का मूल कहा गया है। इसका अर्थ यह हुआ. कि पापों का जन्म लोभ की प्रवृत्ति से ही होता है। यदि हम विश्व के संघर्षों या युद्धों के मूल कारणों को देखें तो कहीं न कहीं उनके मूल में लोभ या लालसा का तत्व निहित होता है। लालसा चाहे इन्द्रिय विषयों की पूर्ति के लिये हो, चाहे धन सम्पत्ति या भूमि के स्वामित्व के लिये हो वह लोभ का ही एक रूप है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विषमताओं का मूल कारण कहीं न कहीं लोभ ही है। इस प्रकार संसार और चित्तवृत्ति में जो विषमताएँ, विरूपताएँ और संघर्ष हैं वे सब क्रोध, मान, माया और लोभ के निमित्त से ही होते हैं।
१०७ 'सूहट्टी लालप्पमाणे सएण दूक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति ।। १५१।।
-आचारांगसूत्र २/६ ।
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