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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
के लिए भेदविज्ञान आवश्यक माना गया है ।
के अभाव में ही बन्धे हुए हैं ( समयसार १३० ) । इस प्रकार मुक्ति भेदविज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है । इसे ही गीता में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान कहा गया है। भेदविज्ञान हमें यह बताता है कि आत्मा का स्वरूप क्या है और 'पर' क्या है। बिना आत्मा को जाने पर - पदार्थों से आसक्ति समाप्त नहीं होती । आसक्ति को समाप्त करने के लिए 'स्व' को स्व के रूप में और 'पर' को पर के रूप में जानना होगा । भेदविज्ञान हमें 'स्व' और 'पर' का भेद सिखाता है । इसी 'पर' को पर के रूप में जान लेने पर उससे हमारी आसक्ति टूटती है । इसीलिए वह समत्वयोग की साधना का अपरिहार्य अंग है । जब हम 'पर' को पर के रूप में जानेंगे, तभी हमारी पर के प्रति रही हुई आसक्ति टूटेगी और जब पर के प्रति रही हुई आसक्ति टूटेगी, तभी चित्तवृत्ति समत्व में अवस्थित होगी । भेदविज्ञान में जो आत्म-अनात्म या स्व-पर का विवेक किया जाता है; उसके लिए सबसे पहले यह जानना आवश्यक होता है कि आत्मा का स्वरूप क्या है और पर का स्वरूप क्या है । क्योंकि आत्मा के स्व-स्वरूप को जानकर ही 'पर' को पर के रूप में जाना जा सकता है । क्योंकि जो आत्मा नहीं है, वही पर है। इसलिए स्व-स्वरूप का बोध होने पर ही पर का बोध हो सकता है । यह भेदविज्ञान अनात्म के प्रति आत्मबुद्धि के परित्याग से ही होता है । अतः इसके लिए आत्मज्ञान या स्व-स्वरूप का बोध आवश्यक है । क्योंकि जब तक स्व-स्वरूप का बोध नहीं होगा, तब तक पर के प्रति ममत्व बुद्धि दूर नहीं होगी। जब तक पर के प्रति ममत्व बुद्धि दूर नहीं होगी, तब तक राग भाव बना रहेगा और जब तक राग भाव बना रहेगा, तब तक इच्छाएँ और आकांक्षाएँ जन्म लेती रहेंगी और जब तक इच्छाएँ-आकांक्षाएँ रहेंगी, तब तक चित्तवृत्ति में समत्व नहीं आ सकता । इसलिए समत्व की साधना में भेदविज्ञान या आत्मा-अनात्मा का विवेक आवश्यक है। इसे हीं जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ।
भेदविज्ञान क्या है? इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. सागरमल जैन
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समयसार टीका १३०-३१ ।
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