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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
इससे यह फलित होता है कि समत्वयोग की साधना के लिए सम्यग्ज्ञान आवश्यक है।
भारतीय दार्शनिकों का मानना है कि आत्म-अनात्म का विवेक या स्व-पर का बोध साधना के राजमार्ग पर बढ़ने के लिए आवश्यक है। दशवैकालिकसूत्र में आर्य शय्यम्भव लिखते हैं कि जो आत्म या अनात्म के यथार्थ स्वरूप को जानता है, ऐसा ज्ञानवान साधक साधना या संयम के स्वरूप को भी भलीभाँति जानता है। वह बन्धन और मुक्ति के यथार्थ स्वरूप को जानकर सांसारिक भोगों में निःसारता समझ लेता है। फलस्वरूप उससे विरक्त हो जाता है और विरक्त होकर वह स्व-स्वरूप में निमग्न रहता है। उसकी बहिर्मुखता समाप्त हो जाती है और इस प्रकार वह इच्छाओं और आकांक्षाओं से मुक्त होकर समत्व या समभाव में स्थिर रहता है। समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य वीतराग दशा को प्राप्त होना है और यह वीतराग दशा आत्म-अनात्म के विवेक के बिना सम्भव नहीं होती। इससे भी यही फलित होता है कि समत्वयोग की साधना सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्भव नहीं है। सामान्यतः ज्ञान के तीन स्तर माने गये हैं - इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान। साधना की दृष्टि से इन्द्रियजन्य ज्ञान और बौद्धिक ज्ञान इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा हमारा सम्बन्ध बाह्य जगत से जुड़ता है
और उसके परिणामस्वरूप अनुकूल पदार्थों के प्रति राग और प्रतिकूल पदार्थों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष के कारण चैतसिक समत्व भंग होता है। अतः साधना की दृष्टि से इन्द्रियजन्य ज्ञान को महत्त्व नहीं दिया गया है। क्योंकि इसके कारण चित्त के विचलन या विभाव परिणति ही होती है। बौद्धिक ज्ञान भी चिन्तनजन्य है और चिन्तन भी कहीं न कहीं हमारे चैतसिक समत्व को भंग करता है। साधना का मुख्य लक्ष्य तो विचार-विकल्पों से ऊपर उठकर निर्विकल्पता को प्राप्त करना है। बौद्धिक ज्ञान हमें निर्विकल्पदशा को प्राप्त कराने में अधिक सहायक नहीं है। उससे आत्मानुभूति सम्भव नहीं है। वह आत्म केन्द्रित न होकर
५३ दशवैकालिकसूत्र ४/१४-२७ ।
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