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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
उसका आचरण करेगा। दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं, तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात ही होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के पश्चात् ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे। व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है - उसमें जो स्थायित्व होता है, वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता। ज्ञान के अभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की सम्भावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं, वरन् अन्धश्रद्धा ही हो सकती है। जिनप्रणित तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो सकती है। यद्यपि साधना और आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञान प्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसत्र में स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें और तर्क से तत्त्व का विवेचन करें।° उनके उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हम दर्शन शब्द का अर्थ अनुभूति या दृष्टि करते हैं, तो हमें सम्यग्दर्शन को सम्यग्ज्ञान के पूर्व स्वीकार करना होगा; क्योंकि अनुभूति या दृष्टि के सम्यक् हुए बिना ज्ञान सम्यक नहीं हो सकता। किन्तु यदि हम दर्शन का अर्थ श्रद्धा करते हैं, तो हमें उसे सम्यग्ज्ञान के बाद ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि ज्ञान के सम्यक् हुए बिना श्रद्धा सम्यक् नहीं हो सकती। ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धश्रद्धा से अधिक नहीं होती और जैनदर्शन कहीं भी अन्धश्रद्धा को स्थान नहीं देता है। इसलिए सम्यग्दर्शन शब्द अपने श्रद्धापरक अर्थ में सम्यग्ज्ञान के पश्चात् ही माना गया है। जहाँ तक सम्यग्ज्ञान के विषय का प्रश्न है, जैन दार्शनिक ग्रन्थों में सदैव ही जीवादि नवतत्त्वों के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान का विषय माना गया है। किन्तु इन तत्त्वों का ज्ञान ही वस्तुतः आत्मसापेक्ष है।
'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २४ । उत्तराध्ययनसूत्र २८/३५ । उत्तराध्ययनसूत्र २३/२५ ।
-डॉ सागरमल जैन ।
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