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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
लेकर विभिन्न प्रकार के सन्दर्भ उत्पन्न होते हैं। कहीं सम्यग्दर्शन को सम्यग्ज्ञान के पहले स्थान दिया गया है; तो कहीं सम्यग्ज्ञान को सम्यग्दर्शन के पहले स्थान दिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने त्रिविध साधनामार्ग की चर्चा करते हुए पहले सम्यग्दर्शन को और फिर सम्यग्ज्ञान को स्थान दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र के अन्दर पहले सम्यग्ज्ञान और फिर उसके बाद सम्यग्दर्शन को स्थान दिया है। अतः एक विवादात्मक स्थिति उत्पन्न होती है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में किसे प्राथमिक माना जाये। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाये, यह निर्णय करना सहज नहीं है। इस विचार के मूल में तथ्य यह है कि जहाँ श्रद्धावादी दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान दिया गया है, वहीं ज्ञानवादी दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक् होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता को स्वीकार करता है।"
वस्तुतः इस सम्बन्ध में कोई भी एकांगी निर्णय लेना कठिन है। यदि ज्ञान और दर्शन परस्पर सापेक्ष हैं और आत्मतत्त्व की अपेक्षा से उनमें तादात्म्य भी है, तो फिर इस सम्बन्ध में कोई भी एकांगी निर्णय उचित नहीं होगा। वस्तुतः यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम दर्शन शब्द का क्या अर्थ लेते हैं। इस सम्बन्ध में पुनः डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, इसका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर लेना जरुरी है। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं - • यथार्थ दृष्टिकोण और श्रद्धा। यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोण परक अर्थ लेते हैं, तो हमें साधना मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए; क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है - अयथार्थ है, तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ) होगा और न चारित्र ही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हों, तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते। वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और
४६ 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।'
उत्तराध्ययनसूत्र २८/३० । ।
-तत्त्वार्थसूत्र १/१।
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