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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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आधार पर जो विशेष बोध होता है, वही ज्ञान कहलाता है। इसी आधार पर जैन धर्म में दर्शन को अनाकार और ज्ञान को साकार कहा जाता है।५ जैनधर्म में दर्शन निर्विकल्प या शुद्ध अनुभूति है
और जिज्ञासा के परिणामस्वरूप उस अनुभूति के सम्बन्ध में जो विकल्प रूप विशेष बोध होता है, वह ज्ञान कहलाता है। यदि ज्ञान
और दर्शन में अन्तर करना हो, तो हम इस आधार पर कर सकते हैं कि दर्शन चिन्तन रहित मात्र अनुभूति है और ज्ञान चिन्तन या विमर्श से युक्त अनुभूति है। ज्ञान का जन्म भी अनुभूति से ही होता है, किन्तु जब हम किसी अनुभूति को विस्तार से जानने का प्रयत्न करते हैं तो वही अनुभूति ज्ञान में बदल जाती है। अतः ज्ञान अनुभूति या दर्शन से पृथक् नहीं हैं। वह दर्शन का ही एक अग्रिम चरण है - वह भी आत्मा का स्वभाव ही है। किन्तु जैनदर्शन में जिस ज्ञान को मोक्षमार्ग का अंग माना गया है, वह ज्ञान वस्तु या पदार्थ का ज्ञान नहीं है। वह तो आत्मा का ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का सम्बन्ध पदार्थगत ज्ञान की अपेक्षा आत्मिक ज्ञान से अधिक है। जो ज्ञान हमें आत्मबोध या आत्मानुभूति की दिशा में नहीं ले जाता, वह सम्यग्ज्ञान नहीं है। साधना की दृष्टि से तो वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान माना गया है, जिसके द्वारा हमें आत्मतत्त्व के शुद्ध स्वरूप की अनुभूति होती है।
जैनदर्शन में जीवादि नवतत्त्वों के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा गया है। किन्तु यहाँ यह विचार कर लेना आवश्यक है कि आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं। एक स्वभाव अवस्था और दूसरी विभाव अवस्था। सम्यग्ज्ञान का सम्बन्ध स्वभाव को स्वभावरूप में और विभाव को विभाव के रूप में जानना है। यदि व्यक्ति आत्मा की विभाव दशा को ही स्वभावदशा मानले, तो उसका ज्ञान मिथ्या हो जाता है। यही कारण है कि जैनदर्शन में मात्र ज्ञान को मोक्षमार्ग नहीं कहा गया है; अपितु सम्यग्ज्ञान को मोक्षमार्ग कहा गया है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का पूर्वापरत्व :
जैन ग्रन्थों में सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन के पूर्वापरत्व को
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तत्त्वार्थसूत्र २/६ की टीका ।
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