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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
विषयों में आसक्त नहीं होता, किसी जैन कवि ने कहा है कि " सम्यग्दृष्टि जीवड़ा,
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यहाँ अर्थ यह है कि अन्तर में अनासक्ति या वीतराग भाव उत्पन्न होने पर ही सम्यग्दर्शन सम्भव होता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन वस्तुतः वीतरागता के प्रति अनन्य निष्ठा और जीवन में उसको आत्मसात करने के प्रयत्न करने में निहित है । समत्वयोगी वीतरागता का उपासक होता है और वीतरागता के उपासक को ही सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द वीतरागता या समत्व (समभाव ) के प्रति अनन्य निष्ठा का ही वाचक है । सन्त आनन्दघनजी ने भी सम्यग्दर्शन के महत्त्व एवं लक्षण को प्रतिपादित किया है :
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करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सूं न्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल ।।”
वही सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ।
परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर उन पर पूर्ण श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है और यही आत्मशान्ति का प्रथम सोपान है । सन्त आनन्दघनजी ने भी उपरोक्त पंक्तियों में इसी बात पर बल दिया है। श्रद्धा के बिना साधक साधना में प्रवेश नहीं कर सकता । श्रद्धा के भी दो रूप होते हैं। एक है अन्धश्रद्धा और दूसरी है सम्यक् श्रद्धा । गीता में श्रद्धा के तीन रूप बताये गये हैं सात्त्विक, राजसिक और तामसिक श्रद्धा सन्त आनन्दघनजी ने भी सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में श्रद्धा के स्थान पर शुद्ध श्रद्धान की चर्चा की है। आचार्य समन्तभद्र ने भी सुश्रद्धा शब्द प्रयुक्त किया है। जो श्रद्धा ज्ञानपूर्वक ही होती है वही सम्यक् श्रद्धा है और उसे ही सम्यग्दर्शन कहा है ।
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"भाव अविशुद्ध जु, कह्या जिनवर देव रे । ते अविता सद्द, प्रथम ए शान्ति पद सेव रे ।। ३६
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देखे आनन्दघन ग्रन्थावली, 'शान्तिजिन स्तवन' । भगवद्गीता १६ / २ ।
देखें आनन्दघन ग्रंथावली, 'अनन्तजिन स्तवन' । 'सुश्रद्धा ममते मते स्मृतिरपि त्वश्यर्चनं चापि ते ।'
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-स्तुमिविद्या ११४ ।
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