________________
५८
जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
२.२ सम्यग्ज्ञान क्या, क्यों और कैसे
हमने प्रारम्भ में ही यह संकेत दिया है कि जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र व्यवहार दृष्टि से ही एक दूसरे से अलग-अलग माने गये हैं । निश्चय में तो ये एक दूसरे से असंपृक्त नहीं हैं । आचारांगचूर्णि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “जं समत्तं तत्थ नियमा नाणं, जत्थ नाणं तत्थ नियमा
समत्तं । ४३ इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान वस्तुतः एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं । चूर्णिकार की दृष्टि में तो जहाँ सम्यक्त्व है, वहाँ ज्ञान है और जहाँ ज्ञान है, वहाँ सम्यक्त्व है। जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान ऐन्द्रिक ज्ञान या बौद्धिक ज्ञान नहीं है वह सत्य की साक्षात् अनुभूति है । यदि सम्यग्दर्शन का अर्थ आत्मानुभूति या आत्मसाक्षात्कार है, तो वह सम्यग्ज्ञान से पृथक् नहीं है । जैनदर्शन में श्रद्धा का अर्थ केवल विश्वास नहीं है। श्रद्धा अन्तर की अनुभूति से प्रकट होती है; जबकि विश्वास बाह्य तथ्यों पर होता है | श्रद्धा के लिए अनुभूति आवश्यक है ।
I
पूर्व में हमने इस बात की चर्चा की है कि सम्यग्दर्शन का प्राचीन अर्थ आत्मानुभूति या आत्मसाक्षात्कार रहा है। अनुभूति के बिना कोई ज्ञान सम्भव नहीं है । अतः सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन तत्वतः एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं। अनुभूति के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना अनुभूति सम्भव नहीं है । जहाँ अनुभूति है, वहाँ ज्ञान है और जहाँ ज्ञान है वहाँ अनुभूति है । अतः निश्चय में तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं । पुनः ज्ञान और दर्शन भी आत्मा पर आधारित हैं। आत्मा के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना आत्मा का कोई अर्थ नहीं है । जो आत्मा है वह नियमतः ज्ञानमय है । आचारांगसूत्र में कहा गया है कि “जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वही आत्मा है ।४४ फिर भी जैनदर्शन में जो ज्ञान और दर्शन का भेद किया जाता है; वह भेद वस्तुतः सामान्य और विशेष ज्ञान की दृष्टि से किया जाता है 1 सामान्य का बोध या अनुभूति दर्शन है और इस अनुभूति के
४३
आचारांगचूर्णि ५/३ |
४४ 'जे आया से विण्णाया जे विण्णाया से आया ।'
Jain Education International
—
· - आचारांगसूत्र १/१/५/१०४ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org