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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
जाति, कुल, ज्ञान, सम्पत्ति किसी भी प्रकार की स्थिति का अहंकार करना चित्त की विषमता का ही कारण है। अहंकारी व्यक्ति का चित्त सदैव अशान्त बना रहता है। मात्र यही नहीं, उसमें पूजा
और प्रतिष्ठा की आकांक्षाएँ भी वृद्धि को प्राप्त होती रहती हैं। उनकी उपलब्धि में बाधा आने पर वह क्रोध से आविष्ट हो जाता है, तो दूसरी ओर मान-सम्मान की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के छल-छद्म करता है। इस प्रकार उसका चित्त अन्य-अन्य कषायों से भी आक्रान्त बना रहता है। यह उसकी चित्तवृत्ति की विषमता का ही सूचक है। इस प्रकार समत्व के विचलन का कारण व्यक्ति की अहंकार वृत्ति भी है।
कषायों में तीसरा स्थान माया या कपट वृत्ति का है। कपट का अर्थ दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति है। साथ ही वह व्यक्ति के जीवन के दोहरेपन को भी प्रकट करती है। व्यक्ति जो कुछ और जैसा है, वैसा अपने को प्रकट न करके दूसरों के सामने अपने को अन्य रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकार कपट की वृत्ति के आते ही चैतसिक समत्व या चैतसिक शान्ति भंग हो जाती है। जीवन में दोहरापन स्वयं ही इस बात का प्रतीक है कि उसका चित्त अशान्त है। क्योंकि जो कपट करता है, वह हमेशा इस बात से भयभीत रहता है कि कहीं सत्यता उजागर न हो जावे। इस प्रकार कपटी व्यक्ति के मन में भय की भावना भी होती है और जहाँ भय की भावना है, वहाँ आन्तरिक समता सम्भव नहीं है। इस प्रकार मायाचार या छल-छद्म की वृत्ति ही व्यक्ति के चैतसिक समत्व के भंग होने का एक प्रमुख कारण है। कपट की वृत्ति और चैतसिक समता एक साथ नहीं रह सकते। इसलिये विषमता के कारणों में एक महत्त्वपूर्ण कारण मायाचार या कपट वृत्ति ही माना जाता है। मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है - उसका संसार-परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता।०६।
कषाय में लोभ का चौथा स्थान है। लोभ का अर्थ है व्यक्ति के मन में इच्छा और आकांक्षा का बना रहना। जीवन में जब तक इच्छा आकांक्षा या तृष्णा की सत्ता है तब तक चित्तवृत्ति का समत्व
१०६ 'माई पमाई पुणरेइ गब्भं ।'
-आचारांगसूत्र ३/१ ।
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