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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
सम्यग्दर्शन के उपरोक्त तीनों अंग वस्तुतः समत्वयोग की साधना से ही सम्बन्धित हैं। अनुकम्पा - सम्यग्दर्शन का चौथा अंग अनुकम्पा है। अनु का अर्थ पश्चात् और कम्पा का अर्थ कम्पन। अनुकम्पा अनु + कम + अ + यम के योग से बना है, जिसका अर्थ है दूसरे की पीड़ा की आत्मवत् अनुभूति। वस्तुतः अनुकम्पा का उदय तभी होता है, जब पर की पीड़ा हमारी अर्थात् स्व की पीड़ा बन जाती है। पर की पीड़ा की आत्मवत् अनुभूति से ही अहिंसा का उदय होता है; जो जैन साधना का आधार तत्त्व है। अहिंसा का विकास आत्मवत् दृष्टि के बिना असम्भव है। पुनः आत्मवत् दृष्टि के बिना जीवन में अनुकम्पा का उदय नहीं होता। इसलिए अहिंसा और अनुकम्पा दोनों ही आत्मवत् दृष्टि पर आधारित हैं। जैसा कि हमने पूर्व में बताया था कि समत्वयोग की साधना के लिए भी आत्मवत् दृष्टि का विकास आवश्यक है। अतः सम्यग्दर्शन का अनुकम्पा नामक यह चतुर्थ
अंग भी वस्तुतः समत्वयोग की साधना से ही सम्बन्धित है। - आस्तिक्य - सम्यग्दर्शन का पांचवां अंग आस्था या आस्तिक्य
है। 'अस्तिभावं आस्तिक्यम्' अर्थात् जब तक जीवन में आस्था का विकास नहीं होता तब तक चित्त की वृत्तियाँ स्थिर नहीं रहतीं। क्योंकि सन्देह की उपस्थिति में चित्त की निराकुलता या निर्विकल्पता सम्भव नहीं है। चित्त को निराकुल बनाने के लिए आस्था आवश्यक है। आस्था के परिणामस्वरूप ही निर्विकल्प दशा की साधना सम्भव होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का यह पांचवा अंग भी किसी न किसी रूप में समत्वयोग की
साधना से जुड़ा हुआ है। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की साधना समत्वयोग की साधना का ही एक प्रकार है। जब तक अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति अविचलित नहीं रहती; तब तक कोई भी साधना सार्थक नहीं हो सकती और सम्यग्दर्शन की साधना का मुख्य लक्ष्य चित्तवृत्ति को निर्विकल्प और अविचलित रखना है।
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