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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
कर्मबन्ध है और जब तक कर्मबन्ध है तब तक आत्मा समत्व की अवस्था को प्राप्त करने में असमर्थ रहती है । प्रमाद या असजगता की अवस्था में व्यक्ति के चित्त पर वासनाएँ हावी रहती हैं और जहाँ हमारी चेतना वासनाओं से आक्रान्त होती है वहाँ उसका समत्व विचलित हो जाता है । इसलिये समत्व से विचलन के कारणों में एक हेतु प्रमाद ही है । जैनदर्शन में कषायों की अवस्थिति को भी प्रमाद ही कहा गया है । किन्तु यहाँ हम कषायों के सन्दर्भ में अलग से चर्चा कर रहे हैं । इसलिये प्रस्तुत चर्चा को यहीं विराम देना चाहेंगे ।
कषाय
समत्व से विचलन के कारणों में कषाय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हुआ है । कषाय शब्द का अर्थ यही है कि जो आत्मा को कृश करे वही कषाय है । १०३ जैनदर्शन में क्रोध, मान, माया और लोभ को कषाय कहा गया है। इनके नामों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ये हमारी आत्मा के समत्व को विचलित करते हैं। क्योंकि व्यक्ति जब क्रोध के आवेग से आक्रान्त होता है, तब उसकी चित्तवृत्ति का समत्व भंग हो जाता है । क्रोध में होना असजगता तो है, साथ ही वह हमारी चेतना की तनावपूर्ण स्थिति का भी सूचक है । अतः जहाँ क्रोध है, वहाँ चित्तवृत्ति का समत्व सम्भव ही नहीं है। क्रोध में हमारा शरीर और हमारी चेतना दोनों ही तनावग्रस्त बने रहते हैं । अतः क्रोध को चैतसिक विषमता का कारण माना जा सकता है ।
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कषाय का दूसरा रूप मान या अहंकार की वृत्ति है । जिस व्यक्ति के अन्दर अहंकार की भावना का उदय होता है; वह व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने का प्रयास करता है । " यहाँ ऊँच-नीच की भावना न केवल उसके चैतसिक समत्व को भंग करती है, अपितु हमारे सामाजिक समत्व को भी भंग करती है ।
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(क) सर्वार्थसिद्धि ६ / ४ ।
(क) स्थानांगसूत्र ४ / १/२५१ । (ग) समवाओ / समवाय ४/१ 1 आचारांगसूत्र १/१/११ ।
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(ख) तत्त्वार्थवार्तिक ६/४/२ । (ख) प्रज्ञापनासूत्र २३/१/२६० । (घ) विशेषावश्यकभाष्य २६८४ ।
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