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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
है, वैसे ही आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता रही हुई है। पुनः यह परमात्मदशा भी आत्मा की ही समत्वपूर्ण वीतराग अवस्था है। समत्व से विचलित होना - यही संसार है, बन्धन है और यही दुःख भी है; जबकि समत्व की उपलब्धि ही मुक्ति है। इसलिए समत्वरूप मोक्ष की उपलब्धि के लिए समत्वयोग की साधना आवश्यक है। मूल में तो समत्वयोग ही एक मात्र मोक्षमार्ग है। किन्तु आत्मा के विविध पक्षों के आधार पर द्विविध, त्रिविध आदि मोक्षमार्ग का विवेचन भी जैनदर्शन में मिलता है।
मोक्ष समत्वरूप है, अतः समत्व आत्मा का साध्य भी है और साधन भी। जैनदर्शन में समत्वयोग या सामायिक की साधना को ही मोक्षमार्ग कहा गया है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके है कि आचार्य हरिभद्र के अनुसार व्यक्ति चाहे किसी भी परम्परा का हो; यदि वह समभाव की साधना करेगा तो निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा। आचारांगसूत्र में भी समभाव की साधना को धर्म या मोक्षमार्ग के रूप में विवेचित किया गया है। इस प्रकार यदि मोक्षमार्ग के रूप में किसी एक को ही साधन बताना हो तो वह समत्वयोग की साधना है। क्योंकि समत्व आत्मा का स्वरूप है और वही साध्य है। यदि हमें द्विविध रूप से मोक्षमार्ग की चर्चा करना हो तो ज्ञान और क्रिया को मोक्ष कहा गया है। सूत्रकृतांगसूत्र में “विज्जाचरण पमोक्खो" कहकर इस त्रिविध मोक्षमार्ग का उल्लेख हुआ है। वहाँ ज्ञान और आचरण को ही मोक्षमार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मोक्षमार्ग के अंग के रूप में ज्ञान और आचरण को समत्व से युक्त अर्थात सम्यक् होना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में भी प्रथम ज्ञान और फिर दया अर्थात अहिंसा का पालन, ऐसा कहकर इसी द्विविध मोक्षमार्ग का विवेचन हुआ है। विशेषावश्यकभाष्य में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि मुक्ति ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही होती
३ (क) 'सेयम्बरो वा आसम्बरो वा बद्धो वा तहेव अन्नो वा ।
समभाव भावियप्पा लहर मुक्खं न संदेहा ।।' (ख) समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए । सूत्रकृतांगसूत्र १/१२/११ । दशवैकालिकसूत्र ८/१/१४, १६ ।
-हरिभद्र । -आचारांगसूत्र १/५/३/५७ ।
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