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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
व्यक्ति स्वयं ही करता है और इसी कारण समत्व से विचलित हो जाता है । राग और द्वेष में मूल कारण तो राग ही है, क्योंकि राग के अभाव में द्वेष की कोई सत्ता नहीं होती । द्वेष राग का विरोधी है । जो हमारे राग का विषय है उससे प्रतिकूल विषय या बाधक विषय ही द्वेष का कारण बनाता है । ६५ इसीलिये आचारांगसूत्र में यह कहा गया है कि जब तक ममत्व है, तब तक समत्व सम्भव नहीं है । ममत्व ही समत्व से विचलन का मूल कारण है । व्यक्ति के जीवन में जब तक ममत्व बुद्धि रही हुई है तब तक समत्व सम्भव नहीं है; क्योंकि ममत्व बुद्धि के कारण मेरा और तेरा के भाव उत्पन्न होते हैं । व्यक्ति जिसे मेरा मानता है उससे राग करता है और जिसे पराया मानता है उससे द्वेष करता है । ६ जहाँ हमारे जीवन में अपने और पराये के भाव जागते हैं वहाँ वैयक्तिक जीवन में समत्व भंग होता ही है किन्तु उसके साथ ही साथ सामाजिक जीवन में भी समत्व भंग होता है । व्यक्ति में जब मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरा राष्ट्र आदि की संकुचित भावना जागती है तो सामाजिक समत्व भंग होता है और पारस्परिक संघर्षों का जन्म होता है। एक अन्य दृष्टि से जैनाचार्यों ने अनात्म में आत्म बुद्धि को भी समत्व से विचलन का कारण माना है । बाह्य परपदार्थों में ममत्व का आरोपण होने से व्यक्ति में एक मिथ्या दृष्टिकोण का जन्म होता है । वह, जो अपना नहीं है, उसे ही अपना मानने लगता है और इस प्रकार उसका ध्यान विद्रूपित हो जाता है । उसकी समझ सम्यक् नहीं होती । यह भी राग के जन्म और समत्व से विचलन का हेतु बनता है । इस प्रकार संक्षेप में तो समत्व से विचलन का कारण अनात्म में आत्म बुद्धि करके उसके प्रति रागादि भाव करना ही है । किन्तु यदि हम इस प्रश्न
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६५ आनन्दघन का रहस्यवाद' २३४ ।
६६ (क) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १५३ ।
- डॉ. सागरमल जैन ।
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(ख) 'बोधिचर्यावतार' ८/१३४-३५ ।
( ग ) ' आनन्दघन ग्रन्थावली' पद १०० ।
(घ) वही 'मल्लिजिनस्तवन' |
आचारांगसूत्र २/१/६३ ।
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