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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में हमारी चेतना और व्यवहार को सन्तुलित बनाये रखने का प्रयास है। समत्वयोगी उसे ही कहा जाता है जो जीवन में राग-द्वेष के प्रसंगों के आने अथवा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के उत्पन्न होने पर अपनी चैतसिक समता को नहीं खोता है। दूसरे शब्दों में कहें तो समत्वयोग समभाव या समता की साधना है। विक्षोभों और तनावों के ऊपर उठकर चित्तवृत्ति का समत्व ही समत्वयोग है।
१.६ समत्व से विचलन के कारण ' यह सत्य है कि समत्व को आत्मा का स्वभाव माना गया है और उसे सम्पूर्ण जैन साधना का मुख्य लक्ष्य बताया गया है। किन्तु समत्व की साधना तब तक सम्भव नहीं होगी, जब तक समत्व के विचलन के कारणों का विश्लेषण न कर लिया जाय और उनके निराकरण का कोई प्रयत्न न किया जाय। यद्यपि समत्व को आत्मा का स्वभाव कहा गया है। फिर भी व्यक्ति का समत्व से विचलन देखा जाता है। जिस प्रकार पानी स्वभाव से शीतलता के गुण वाला है, किन्तु अग्नि आदि का संयोग होने पर वह पानी उष्ण हो जाता है। उसी प्रकार यह आत्मा भी बाह्य पदार्थों के निमित्त पाकर अपने समत्व दृष्टि स्वभाव से विचलित हो जाती है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य जगत् के सम्पर्क में आता है। बाह्य जगत् के सम्पर्क में आने से उसे कुछ पदार्थ अनुकूल और कुछ पदार्थ प्रतिकूल लगते हैं। उनके प्रति राग और द्वेष उत्पन्न होता ही है। राग और द्वेष के तत्व ही समत्व से विचलन के मूल कारण हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राग-द्वेष मानसिक विकार माने गये हैं। अतः यह सत्य है कि यदि कोई भी मानसिक विकार होगा तो वह या तो राग (आसक्ति) रूप होगा या द्वेष रूप। विषयों के सम्पर्क में अनुकूलता और प्रतिकूलता की स्थिति ही राग द्वेष का कारण है। किन्तु यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब तक शरीर है और इन्द्रियाँ हैं, तब तक व्यक्ति बाह्य पदार्थों के सम्पर्क से नहीं बच सकता। बाह्य पदार्थों के सम्पर्क से यह भी स्वाभाविक है कि कुछ हमें अनुकूल और कुछ प्रतिकूल लगें। इससे व्यक्ति नहीं बच पाता। किन्तु अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष
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