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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
है।८२ 'योगावतार द्वात्रिंशिका' के अनुसार सम्प्रज्ञातयोग ध्यान और समता रूप है तथा असम्प्रज्ञातयोग वृत्तिसंक्षय रूप है।३ आत्मा के अन्य संयोग से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का अपुनर्भाव रूप से जो निरोध होता है, वही वृत्तिसंक्षय योग है। वृत्तिसंक्षय योग से केवलज्ञान प्राप्ति, शैलेषीकरण और सर्व-कर्म-विमुक्ति रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष ही वह अवस्था है जिसमें आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता निष्पन्न होती
जैनदर्शन में सामायिक या समत्वयोग की साधना वस्तुतः जीवन को समतामय अर्थात् तनावों और विक्षोभों रहित बनाने का अभ्यास है। इससे आत्मा सभी दुःखों अर्थात् तनावों से मुक्त होकर निज स्वभाव की प्राप्ति करती है। समत्वयोग या सामायिक एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे मानव तनावों से मुक्त होकर आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। आत्मविकास और प्रज्ञा के प्रकर्ष के लिये समत्वयोग अर्थात सामायिक के सिवाय अन्य कोई दूसरा प्रभावशाली मार्ग नहीं है।
१.४ समत्व शब्द का अर्थ
समत्वयोग के अर्थ की इस चर्चा में योग शब्द के अर्थ की चर्चा हमने पूर्व में की है। अब समत्व शब्द के अर्थ की चर्चा करेंगे। 'समत्व' शब्द के मूल में सम् शब्द है। सम् शब्द से अच् प्रत्यय लगकर 'सम' शब्द निष्पन्न होता है। अथ च, सम शब्द में
-आचार्य आत्मारामजी । -योगसूत्र पतंजलि ।
५२ (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग', पृ. २२-२३ ।
(ख) 'योगश्त्तिवृत्ति निरोधः ।। १ ।' (क) जैनागमों में अष्टांगयोग' पृ. २३ । (ख) 'सम्प्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदंडन तत्त्वतः ।। १५ ।।' (ग) 'असम्प्रज्ञातनामा तु सम्मतो वृत्तिसंक्षयः ।। २१ ।।' (क) 'अन्यसंयोगवृत्तीनां यो निरोधस्तथा तथा ।
__ अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ।। ३६६ ।।' (ख) “विकल्प-स्पन्दरूपाणां वृत्तीनामत्यजन्मनाम ।
अपुनर्भावतो राधः, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षय ।। २५ ।।' (ग) अष्टांगयोग, पृ. २२ ।
-योगावतार द्वात्रिंशिका ।
-वही।
-योगबिन्दु ।
-योगभेद द्वात्रिंशिका ।
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