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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
मन अपना कार्य तो करता है, लेकिन वह चेतना के सम्मुख जिसे प्रस्तुत करता है, उसे रंगीन नहीं बनाता। आत्मा विशुद्ध दृष्टा होती है। जीवन के सभी पक्ष अपना-अपना कार्य विशुद्ध रूप में बिना किसी संघर्ष के करते हैं।
समत्व का तात्पर्य राग-द्वेष से अतीत होना है; क्योंकि जब तक चित्त में राग-द्वेष बने हुए हैं तब तक समत्व की सम्भावना नहीं है। राग और द्वेष यही हमारी चेतना के समत्व को भंग करते हैं। इसलिए राग-द्वेष का अभाव ही समत्व के सद्भाव का आधार है। राग-द्वेष के निमित्तों को पाकर भी चित्त उनसे आक्रान्त न हो, यही समत्वयोग है। राग-द्वेष के कारण ही क्रोधादि कषाएँ जन्म लेती हैं। ये कषाएँ चेतना के समत्व को भंग करती हैं। अतः समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का कषायों से ऊपर उठना है। कषाय एक प्रकार का मानसिक आवेग है। चित्तवृत्ति जब तक आवेगों से युक्त है तब तक समत्व की सम्भावना नहीं है। अतः समत्वयोग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा साधक कषायों और उनकी जनक राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठता है। एक अन्य दृष्टि से जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती ही रहती हैं। उन अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त का उद्वेलित नहीं होना ही समत्वयोग है। ज्ञातव्य है कि बाह्य परिस्थितियों पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होता है। अनुकूल ओर प्रतिकूल अवस्था में चेतना के समत्व को बनाये रखना अर्थात् इनसे उद्वेलित नहीं होना ही समत्वयोग है। वस्तुतः समत्वयोग विविध प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में हमारी चेतना और व्यवहार को सन्तुलित बनाये रखने का प्रयास है। समत्वयोगी उसे ही कहा जाता है जो जीवन में राग-द्वेष के प्रसंगों के आने अथवा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के उत्पन्न होने पर अपनी चैतसिक समता को नहीं खोता है। दूसरे शब्दों में कहें तो समत्वयोग समभाव या समता की साधना है। विक्षोभों और तनावों के ऊपर उठकर चित्त-वृत्ति का समत्व ही समत्वयोग है।
मनुष्य का अपने परिवेश के साथ जो संघर्ष है, उसमें जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ भोगासक्ति ही प्रमुख कारण है। संघर्ष की तीव्रता आसक्ति की तीव्रता के साथ बढ़ती जाती है।
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