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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
नहीं है। दूसरी ओर जब तक जीवन में समत्व की सिद्धि नहीं होती, तब तक राग-द्वेष से ऊपर उठना और वीतरागता उपलब्ध करना सम्भव नहीं होता। योगसार में कहा गया है कि जब तक राग-द्वेष दृष्टि अन्तरात्मा के शत्रुओं को समाप्त नहीं किया जाता, तब तक सुनिश्चल साम्य अवस्था की प्राप्ति नहीं होती और जब तक साम्य अवस्था की प्राप्ति नहीं होती तब तक परमात्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। इस प्रकार हम देखते हैं कि समत्वयोग और वीतरागता दोनों अन्यान्योश्रित हैं। समत्व के बिना वीतरागता नहीं है और वीतरागता के बिना समत्व नहीं है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं। वस्तुतः जहाँ समत्व है, वहाँ वीतरागता है और जहाँ वीतरागता है वहीं समत्व है। समत्व का तात्पर्य भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना है। यही वीतरागता का अर्थ है। ___ जिस व्यक्ति में समत्व का विकास हो जाता है, उसमें सन्तुलन, तटस्थता और संयम ये तीनों समत्व की अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। कषायों के उपशमन या क्षीण होने से समत्व चेतना जाग्रत होती है। समतायोग वीतरागता का सूचक है। अनुकूल-प्रतिकल स्थिति में राग-द्वेष रहित होकर समभाव रखना वीतरागता का संक्षिप्त अर्थ है। वस्तुतः वीतरागभाव या समभाव स्वभाव का ही दूसरा रूप है। स्वयं को समभाव में अधिष्ठित रखना ही वीतरागता की साधना है। वीतरागता समत्वयोग का चरमबिन्दु है।
जैनधर्म में समत्व के कारण अनेक साधकों ने वीतरागता प्राप्त की है; जैसे - राजर्षि दमदत्त, गजसुकुमार, आचार्य स्कन्दक के पांच सौ शिष्य आदि ।
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना का परम साध्य वीतरागता की प्राप्ति रहा है। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा प्रत्येक समत्वी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में बताया है कि वीतराग का ध्यान (चिन्तन, मनन, प्रणिधान) करने से व्यक्ति स्वयं राग रहित हो जाता है, जबकि रागी (सराग) का अवलम्बन लेने वाला व्यक्ति विक्षेप या विक्षोभ पैदा करने वाले (काम, क्रोध, मोह, मात्सर्य, हर्ष, शोक, राग-द्वेषादि) सरागत्व को
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