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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
महर्षिगण पार कर जाते हैं।"७० भावनायोग की उपलब्धि के मुख्य तीन पहलू हैं - सम, संवेग और निर्वेद ।
ध्यानयोग ध्यान शब्द 'ध्यै चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न हुआ है। इस व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के आधार पर ध्यान का तात्पर्य चिन्तन या एकाग्रतापूर्वक चिन्तन होता है। एकाग्र चिन्तन से चित्त में विकल्प विलीन होते हैं और ध्यान के माध्यम से अन्त में चित्तवृत्ति का निरोध होता है तो वह ध्यानयोग बन जाता है। प्रश्नव्याकरण के पंचम संवरद्वार में ध्यान के स्वरूप का वर्णन मिलता है। उसमें कहा गया है कि स्थिर दीपशिखा के समान निष्प्रकम्प एवं निश्चल तथा मन में अन्य विषयों के संचार से रहित केवल एक ही विषय का प्रशस्त सूक्ष्मबोध जिसमें हो, वह ध्यान है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता ध्यान है।७२
समतायोग इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं के संयोग में समताभाव रखना ही समतायोग है। इसे समभाव अथवा सामायिक की साधना भी कहते हैं। समभाव रूप सामायिक के बिना मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। आवश्यकनियुक्ति में भी सामायिक का मार्मिक विवेचन किया गया है।०३ तत्त्वानशासन में समता शब्द के अनेक पर्यायवाची अर्थ किये हैं। वे माध्यस्थ, समभाव, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहता,
७० 'सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। ___ संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।। ७३ ॥' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २३ । ७१ 'निवाय - प्पदीपज्झाणमिवनिप्पकमे ।।
-प्रश्नव्याकरणसूत्र ५ । ७२ 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधोध्यानम् ।।२७ ।।
-तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन ६। ७३ (क) 'जे केवि गया मोक्खं, जे वि य गच्छति, जे गमिस्संति ।
जे सव्वे सामाइयप्पभावेण मुणेयव्वं ।। किं तवेण तिब्वेण, किं च जपेण किं चरित्तेण ।
समयाइ विण मुक्खो, न हुओ कहा वि न हु होइ ।।' -सामायिकसूत्र पृ. ७८ । (ख) सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेण बहुसो समाइयं कुज्जा ।।८०० ।।' -आवश्यकनियुक्ति ।
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