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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
का न होना ही सामायिक है और इसे ही चित्तवृत्ति का समत्व कहा गया है। वस्तुतः सामायिक की साधना ही समत्व की साधना है। सामायिक की साधना का अर्थ है चित्त का विक्षोभों या तनावों से रहित होना। यही समत्व भी है। अतः समत्व और सामायिक दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं। जिसे हम मनोवैज्ञानिक भाषा में चित्तवृत्ति का समत्व कहते हैं, उसे ही जैन परम्परा में सामायिक कहा गया है। चित्तवृत्ति के समत्व की साधना ही सामायिक की साधना है, क्योंकि जिससे समत्व की प्राप्ति या लाभ हो उसे ही सामायिक कहा गया है। मनोवैज्ञानिक भाषा में जिसे चित्तवृत्ति का समत्व कहते हैं, उसे दर्शन के क्षेत्र में समाधि भी कहा जाता है। वस्तुतः चित्तवृत्ति का समत्व, सामायिक और समाधि तीनों एक ही अर्थ के सूचक हैं। विशेषता मात्र यह है कि समत्व की साधना का जो प्रयत्न किया जाता है उसे सामायिक कहा जाता है। समत्व की उपलब्धि के लिये सजग होकर पूरुषार्थ करना ही सामायिक है और इस दृष्टि से समत्व साध्य है और सामायिक उसकी उपलब्धि का साधन है। फिर भी यहाँ साध्य और साधन में द्वैत भाव नहीं है क्योंकि समत्व के बिना सामायिक नहीं होती और सामायिक की साधना बिना समत्व की उपलब्धि नहीं होती है। इस प्रकार समत्व और सामायिक में साध्य-साधन भाव है। सामायिक साधन है और समत्व साध्य है और समत्व की प्राप्ति समाधि है। सामायिक की साधना ही समत्वयोग है।।
सामायिक में समत्व और योग दोनों ही निहित हैं। 'सामायिक धर्म : एक पूर्णयोग' में आचार्य कलापूर्णसूरि लिखते हैं कि सामायिक एवम् योग वास्तव में एक ही हैं, अभिन्न हैं। सामायिक की साधना में मन्त्रयोग, लययोग, राजयोग और हठयोग इन चारों योगों का समावेश है।८
सामायिक परम मन्त्रयोग है। 'मननात् त्रांयते इति मंत्रः' अर्थात्
८७ 'निम्मो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो ।
समो य सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।। ६० ।। लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ ।। ६१ ।।' ए 'सामायिकधर्म : एक पूर्णयोग' पृ. ३-४ ।
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ ।
-आचार्य कलापूर्णसूरि ।
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