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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
अनुकूल-प्रतिकूल के रूप में देखता है और किसी के प्रति भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता है, वही समत्वयोग का साधक है। दूसरे शब्दों में संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् मानकर व्यवहार करना ही समत्वयोग है।
सम शब्द का एक अर्थ अच्छा या उचित भी है। इसी प्रकार योग शब्द प्रवृत्ति या आचरण का वाचक है। अतः अच्छा आचरण या सदाचरण भी समत्वयोग की साधना का ही एक रूप है। यदि हम प्राकृत सम् शब्द का संस्कृत रूपान्तर शम के रूप में करें तो क्रोधादि विकारों को शमन करना ही समत्वयोग है।
समत्व या समता का एक अर्थ तुल्यता बोध भी है। सम का अर्थ समानता या तुल्यता लेने पर सभी आत्माओं के प्रति समभाव या तुल्यता के भाव ही समत्वयोग है। लिंग, वर्ग, जाति, सत्ता एवं सम्पत्ति के आधार पर व्यक्तियों में भेद न करके संसार के सभी व्यक्तियों को अपने समान समझना और उनके प्रति समान व्यवहार करना भी सामाजिक स्तर पर समत्वयोग की साधना ही है। सामाजिक समता की स्थापना व्यावहारिक स्तर पर आवश्यक है
और समत्वयोग का साधक इस सामाजिक समता की स्थापना के लिये प्रयत्नशील रहता है। वह सभी व्यक्तियों को आत्मतुल्य मानकर सबके प्रति समभाव रखने की शिक्षा देता है। इस प्रकार समत्वयोग को अन्यान्य दृष्टियों से विवेचित या व्याख्यायित किया जाता है। वर्तमान युग में समत्वयोग के आध्यात्मिक पक्ष के साथ उसके व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना भी आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान युग में तनावग्रस्त इस संसार में समत्वयोग की साधना ही एक ऐसा मार्ग है जिसके द्वारा वैयक्तिक एवम् सामाजिक जीवन में समता की स्थापना की जा सकती है। इस प्रकार समत्वयोग की साधना एक बहआयामी साधना है। उसके आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक आदि विविध पक्ष हैं और इन विविध पक्षों में समन्वय करना ही समत्वयोग के साधक का आवश्यक दायित्व
६ ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।'
-गीता अध्याय ६ ।
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