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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
जो मनन करने से रक्षा करता है उसका नाम मंत्र है । सामायिक की साधना से मन एवं आत्मा की सम्यक् प्रकार से सुरक्षा होती है; राग-द्वेष आदि शत्रुओं से बचाव होता है । अतः वह मन्त्रयोग है ।
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सामायिक को लययोग इस कारण से कहा गया है कि समत्वयोग में सामायिक की साधना से साधक वासनाओं को समाप्त करके अपनी आत्मा या अपने शुद्ध स्व-स्वरूप में लीन हो जाता है। इसलिये इसे लययोग कहा गया है। एक अन्य दृष्टि से इससे वासनाओं, इच्छाओं या विचार - विकल्पों पर विजय होती है । अतः यह लययोग है ।
सामायिक को राजयोग भी इसीलिये कहा है कि साधक क्लेशपूर्ण अवस्था को समाप्त करके प्रशमभाव दृष्टि समाधि को प्राप्त करता है । सामायिक हठयोग भी है; क्योंकि इसमें आसन एवं दृष्टि आदि को अचल या स्थिर रखा जाता है । चलासन और चलदृष्टि सामायिक साधना के दोष हैं । अतः सामायिक में हठयोग का भी समावेश होता है ।
१. ६ समत्व और सम्यक्त्व
सम् और सम्यक् दोनों ही शब्द अव्यय हैं । इन से ही समत्व और सम्यक्त्व शब्द प्रतिफलित होते हैं । सम् (सो + ऽमु) अव्यय है । उसे धातु या कृदन्त शब्दों से पूर्व उपसर्ग के रूप में लगने पर निम्नांकित अर्थ होते हैं।
(क) बहुत पूर्णतः, अत्यन्त;
(ख) की भाँति, समान, एक जैसा; और (ग) निकट, पूर्व ।
सम् अव्यय से मत्वर्थ में तद्धित अच् प्रत्यय होकर 'सम' यह अकारान्त शब्द निष्पन्न होता है। इसके भी निम्नांकित अर्थ इस प्रकार हैं :
८६ ‘अर्शआदिभयोऽच्'
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प्रथमान्त अशस् आदि शब्दों से मत्वर्थ में अच् प्रत्यय होता है ।
-अष्टाध्यायी (पाणिनि ) ५/२/१२७ ।
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