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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
आत्मविशुद्धि को चाहता है; वह अपने मन को समभाव में अधिष्ठित करे। इस समत्व या समभाव की प्राप्ति कैसे होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि जब आत्मा
औदारिक, तैजस व कार्मण - इन तीन शरीरों के प्रति अपने रागादि भाव का त्याग करती है और समस्त परद्रव्यों और परपयार्यों से अपने विलक्षण स्वस्वरूप का निश्चय करती है, तभी साम्यभाव में अवस्थित होती है।३६ वस्ततः जो समभाव में अवस्थित है, वही अविचल सुख और अविनाशी पद को प्राप्त करता है। इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में समस्त साधना का अधिष्ठान यदि कोई है, तो वह समत्वयोग ही है। वे समत्वयोग के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए विस्तारपूर्वक लिखते हैं कि समत्वयोग के प्रभाव से ही परस्पर वैरभाव रखने वाले क्रूर जीव भी अपने वैरभाव को भूल जाते हैं। समत्वयोग की साधना करनेवाले मुनियों के प्रभाव से वे परस्पर ईर्ष्याभाव को छोड़कर मित्रता को प्राप्त होते हें।७२ जिस प्रकार वर्षा के होने पर वन में लगा हुआ दावानल समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार समत्वयोग के साधक योगियों के प्रभाव से जीवों के क्रूरभाव भी शान्त हो जाते हैं।७३ जिस प्रकार अगस्त्य तारे के उदय होने पर शिशिर ऋतु के आगमन से जल निर्मल हो जाता है, वैसे ही समत्वयुक्त योगियों के
-वही ।
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'तनुत्रयविनिर्मुक्तं दोषत्रयविवर्जितम् । यदा वेत्त्यात्मनात्मानं तदा साम्ये स्थितिर्भवेत् ।। १६ ।। अशेषपरपर्यायैरन्यद्रव्यैर्विलक्षणम् ।। निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्यं प्रसूयते ।। १७ ।।' 'तस्यैवाविचलं सौख्यं तस्यैव पदमव्ययम् । तस्यैव बन्धविश्लेषः समत्वं यस्य योगिनः ।। १८ ।।' 'शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैराः परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः ।। २० ।।' 'भजन्ति जन्तवो मैत्रीमन्योऽन्यं त्यक्तमत्सराः । समत्वालम्बिन प्राप्य पादपद्मार्चितां क्षितिम् ।। २१ ।।' 'शाम्यन्ति योगिभिः क्रूराः जन्तवो नेति शंकयते । दावदीप्तमिवारण्यं यथा वृष्टैर्बलाहकैः ।। २२ ।।'
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