________________
१०
जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
सान्निध्य से मलिन चित्त भी निर्मल हो जाता है।४ आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में चाहे अचल पर्वत भी चलायमान हो जाये किन्तु साम्ययोग में प्रतिष्ठित मुनि का चित्त अनेक उपसर्गों से भी विचलित नहीं होता है। साम्ययोग के वैभव को कहाँ तक कहें, यदि बृहस्पति भी स्थिरचित्त होकर कहना चाहे तो भी वह साम्ययोग के महत्त्व को नहीं कह सकता।६ आचार्य शुभचन्द्र के उपर्युक्त वचनों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि समत्वयोग की साधना वास्तविक साधना है।
१.२ समत्व की साधना ही धर्म की आराधना है
भारतीय दार्शनिक चिन्तन धर्म पर आधारित है। भारत में धर्म और दर्शन में उस प्रकार का अन्तर नहीं है, जैसा आधुनिक पाश्चात्य चिन्तन में है। भारतीयदर्शन धर्म की आराधना को ही महत्त्व देता है। धर्म शब्द का सामान्य अर्थ तो यह है कि जिसके द्वारा निःश्रेयस् की सिद्धि होती हो वही, धर्म है। दूसरे शब्दों में जो हमारे आत्मकल्याण में साधक है, वही धर्म है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार धर्म वह है जो प्रजा को धारण करता है, अर्थात् जिससे लोकव्यवहार और समाज-व्यवस्था बनी रहे, वही धर्म है। यदि हम इन परिभाषाओं के सन्दर्भ में विचार करें तो धर्म की आराधना और समत्व की साधना एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं; क्योंकि समत्व की साधना में ही व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण निहित है। व्यक्ति का निःश्रेयस् भी समत्व पर ही आधारित
-वही ।
-वही।
'भवन्त्यतिप्रसन्नानि कश्मलान्यपि देहिनाम् ।
चेतांसि योगिसंसर्गेऽगस्त्ययोगे जलानिवत् ।। २३ ।।' ४५ 'चलत्यचलमालेयं कदाचिदैवयोगतः ।
नोपसगैरपि स्वान्तं मुनेः साम्यप्रतिष्ठितम् ।। ३० ।।' 'दुष्प्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया । विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोदिता देहिनः ।। ३२ ।। आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मानलं ।।
ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि ।। ३३ ।।' ४७ 'यतो निः श्रेयस् सिद्धि सःधर्मः' ४८ 'धर्मो धारयति प्रजाः'
-ज्ञानार्णव सर्ग २४ ।
-वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org