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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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है। सामाजिक समत्व ही लोकव्यवस्था का साधक तत्व है। जीवन में धर्म की अभिव्यक्ति तभी सम्भव है जब जीवन समत्वपूर्ण हो।
यदि हम इस प्रश्न पर जैन धर्म की दृष्टि से विचार करें, तो हम यह पाते हैं कि उसमें धर्म की चार प्रकार की परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में धर्म की परिभाषा देते हुए यह कहा गया है कि प्रथमतः, वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। दूसरे, क्षमा आदि दस सद्गुणों को भी धर्म के रूप में व्याख्यायित किया गया है। तीसरे, रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र को धर्म कहा गया है; तो चौथे, जीवों के रक्षण या अहिंसा को धर्म कहा गया है। जैन धर्म के द्वारा प्रस्तुत धर्म की इन परिभाषाओं पर डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक 'धर्म का मर्म' में विस्तार से प्रकाश डाला है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ये चारों परिभाषाएँ एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं; अपित एक दूसरे की पूरक ही हैं। यहाँ हम उनके उस ग्रन्थ को उपजीवी मानकर चर्चा करना चाहेंगे।
आचार्य कार्तिकेय ने धर्म की प्रथम परिभाषा वस्तु के स्वभाव के रूप में दी है। लोक व्यवहार के अन्दर भी हम देखते हैं कि वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा जाता है; जैसे आग का धर्म जलाना और पानी का धर्म शीतलता है, किन्तु यह बात तो जड़द्रव्यों के सम्बन्ध में हई। हमें तो चेतन सत्ता या आत्मतत्व के स्वभाव का विचार करना है। यदि हम यह मानते हैं कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है, तो यह प्रश्न होगा कि आत्मा का स्वभाव क्या है ? आत्मा के स्वभाव व लक्षणों को लेकर जैन दार्शनिक साहित्य में विस्तृत चर्चाएँ उपलब्ध होती हैं। वहाँ यह कहा गया है कि आत्मा का लक्षण उपयोग है। उपयोग से ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग ये दोनों ही गृहीत किए जाते हैं। सामान्य शब्दावली में कहें, तो यहाँ आत्मा का लक्षण जानना या अनुभव करना यह कहा गया है; किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में हमारे लिये यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। जैन आगम
४६ 'धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। ४७६ ।। ५० 'धर्म का मर्म' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी)।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा । -डॉ. सागरमल जैन ।
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